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________________ (६१) राग सोरठ चित! चेतनकी यह विरियां रे॥टेक ।। उत्तम जनम सुनत तरूनापौ, सुजत बेल फल फरियां रे॥ लहि सत-संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियां रे। सुहित संभा शिथिलता तजिकै, जाहैं बेली झरियां रे॥१॥ चित.॥ दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलिया रे।। ऐसी विभव बढ़ीकै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियां रे ॥२॥ चित.॥ खोय न वीर विषय खल साटैं, ये कोरन की घरियां रे। तोरि न तनक तगा हित 'भूधर', मुकताफलकी लरियां रे॥३॥ चित.॥ हे चेतन ! जरा चितवन करो, यह मनुष्य जन्म एक सुअवसर है, समय है। सुनो, उत्तम जन्म पाया है, यौवन पाया है, जिसमें कुलीनवंश की सन्ततिरूप फल-फूल खिल रहे हैं। जब सयोग से सत्संगति मिली तब ही अपने किए के अच्छे-बुरे की समझ हुई। अपने हित के लिए गोष्ठी, प्रमाद व ढिलाई को तजते ही आत्मीयता के निर्झर फूटने लगते हैं । समाज, बल, आनंद, महल, सम्पति, रुपया, सोने की कलियाँ आदि सभी वैभव निरंतर बढ़ते जावें तो उससे तेरे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी! हे वीर पुरुष! तू विषयरूपी खल के बदले करोड़ों रुपये के मूल्य का समय - अनमोल समय मनुष्य-जन्म मत खो अर्थात् दुष्ट विषयों के लिए अपने अनमोल बहुमूल्य समय को मत खो। भूधरदास कहते हैं कि तू धागे के लिए (धागा पाने के लिए) मोती की माला को मत तोड़। बिरिया = समय । सुजत = कुलीन । संभा - गोष्ठी। शिथिलता - ढीलापन । झरिया = आत्मीयता का सम्बोधन । चहल - आनन्द । सा = बदले में । कोरन = करोड़ों की । तगा = धागा। लड़ी = माला। भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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