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________________ (५४) राग सोरठ अन्तर उज्जल करना रे भाई!॥टेक॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौ, करनी काज न सरना रै॥ जप-तप-तीरथ-जज्ञ-व्रतादिक आगम अर्थ उचरना रे। विषय-कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे॥१॥अन्तर. ।। बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों, कीये पार उत्तरना रे। नाहीं है सब लोक-रंजना, ऐसे वेदन वरना रे ।। २ ॥अन्तर.॥ कामादिक मनसौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे। 'भूधर' नीलवसन पर कैसैं, के सर रंग उछरना रे ॥ ३॥अन्तर.॥ । अरे भाई! अपने अंतरंग को उज्ज्वल करो - स्वच्छ करो। जब तक तुम कपटरूपी तलवार को नहीं छोड़ोगे तब तक अन्तर उज्वल करने का तुम्हारा काम सफल नहीं होगा अर्थात् तुम्हारी ऐसी करनी से तो तुम्हारा काज सफल नहीं होगा। जब तक विषय-वासना और कषायरूपी कीचड़ को नहीं धोओगे, दूर नहीं करोगे तब तक जप-तप, तीर्थयात्रा, यज्ञ (पूजा)-व्रत करना, आगम ग्रन्थों को पढ़ना, उनको समझना, उनका कथन करना सन निरर्थक हैं, परिणामशून्य हैं, निष्फल हैं, उनमें व्यर्थ ही पच-पच कर मरना है। __ अंतरंग की शुद्धिसहित बाह्य क्रिया का पालन करने पर ही इस संसार-समुद्र को पार किया जा सकता है अन्यथा तो यह सब लोकरंजना है, दिखावा है - ऐसा अनुभवियों/ज्ञानियों का कहना है। भूधरदास कहते हैं कि जैसे नीले कपड़े पर केसर का रंग नहीं चढ़ सकता उसी प्रकार जब मन इच्छाओं, कामनाओं, कषाय आदि विचारों से मैला हो तो ऐसे में भक्ति-भजन करने से मुक्ति पाना कैसे संभव हो सकता है? भूधर भजन सौरभ ७७
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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