SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जग तरनतारन जान! महान ॥ बन्दौ दिगम्बर गुरुचरन, जे भरम भारी रोगको, हैं राजवैद्य जिनके अनुग्रह विन कभी, नहिं कटै कर्म जँजीर। ते साधु मेरे उर / मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ १ ॥ यह तन अपावन अशुचि है, संसार सकल असार । ये भोग विष पकवानसे, इस भाँति सोच-विचार ॥ तप विति श्रीमुनि बसे, सब त्यागि परिग्रह भीर । ते साधु मेरे उर / मन बसो, मेरी हरी पातक पीर ॥ २ ॥ जे काच कंचन सम गिनैं, अरि-मित्र एक सरूप । निंदा - बड़ाई बनखण्ड - शहर सारिखी, सुख-दुःख जीवन-मरनमें, नहिं खुशी नहिं साधु मेरे उर / मन बसो, मेरी हरी पातक (५०) गुरु - विनती - ६८ अनूप ॥ दिलगीर | पीर ॥ ३ ॥ ते जे बाह्य परवत वन वसैं, गिरी गुहा सिल सेज समता सहचरी, शशिकिरण मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान ते साधु मेरे उर / मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ४ ॥ नीर । महल दीपक निरमल मनोग | जोग ॥ तोय | होय ॥ धीर । सूखें सरोवर जल भरे, सूखै तरंगनि वाटैं वटोही ना चलें, जहां घाम गरमी तिस काल मुनिवर तप तपैं, गिरिशिखर ठाड़े ते साधु मेरे उर / मन बसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ५ ॥ घनघोर गरजैं घनघटा, जल परै पावसकाल | चहुँ ओर चमकै वीजुरी, अति चलै शीतल व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठै तब जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु मेरे उर / मन असो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ६ ॥ भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy