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________________ राग नट जिनराज चरन मन मति बिसरै । टेक॥ को जानैं किहिं वार कालकी, धार अचानक आनि परै ॥ देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश पूजन पातकपुंज गिरै। इस संसार क्षारसागरसों, और में कोई पार करै ॥ १॥ इक चित ध्यावत वांछिम पावत, आवत मंगल विघन टरै। मोहनि धूलि परी मांथे चिर, सिर नावत ततकाल झरै ॥२॥ तबलौँ भजन संवार सयानैं, जबलौं कफ नहिं कंठ अरै। अगनि प्रवेश भयो घर 'भूधर', खोदत कूप न काज सरै॥३॥ हे भय प्राणी ! जिनराज के चरणों को कभी (थोड़ी देर के लिए भी) मत भूलो। कौन जानता है कि किस समय काल का अचानक आक्रमण हो जाय! इन चरणों को देखते ही, इनका दर्शन-स्मरण पाते ही चहुँ ओर से घेर रहे दु:ख दूर हो जाते हैं, पूजा करने से पाप-समूह समाप्त हो जाता है। यह संसार एक खारे समुद्र की भाँति है। जिनराज के चरणों के अलावा कोई भी (खारे सागर-रूपी) संसार से पार कराने में समर्थ नहीं हैं। इन चरणों का ध्यान करते ही मनोवांछाएँ पूर्ण होती हैं और विघ्नों का नाश होकर मंगल का प्रादुर्भाव होता है। सिर पर सदा से जो मोह की धूल पड़ी है वह भी आपको शीश झुकाते ही, आपकी शरण में आते ही तत्काल झड़कर नीचे गिर जाती हैं । भूधरदास कहते हैं कि घर में आग लगने पर कुआँ खोदने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इसलिए हे सयाने ! जब तक तेरे कंठ कफ के कारण अवरुद्ध नहीं हों, अर्थात् वृद्धावस्था आने पर बोलने में असमर्थ होवे उससे पहले तू इनके (जिनराज के) भजन गाकर अपने जीवन का श्रेष्ठ उपयोग कर। भूधर भजन सौरभ
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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