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________________ आकर्षित होता जाता है और उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। इस श्रद्धा और प्रेम के वशीभूत होकर वह अपने आराध्य को मन में संजोए रखकर विकास की प्रेरणा प्राप्त करता रहता है । जितेन्द्रियावीतराग आराध्य उसको वीतराग/अनासक्त बनने की दिशा में प्रेरित करता है । वीतराग आराध्य भक्त का सहारा बनकर उसे आत्मानुभूति/आत्मान्द में उतर जाने की ओर इंगित करता है। यही भक्ति की पूर्णता है। इस तरह से वीतराग की भक्ति वीतरागी बना देती है। भक्ति की परिपूर्णता में वीतरागी के प्रति राग तिरोहित हो जाता है। यहाँ यह समझना चाहिए कि भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में भी वीतरागी आराध्य के प्रति राग वस्तुओं और मनुष्यों के राग से भिन्न प्रकार का होता है । उसे हम उदात्त राग कह सकते हैं । इस उदात्त राम से संसार के प्रति आसक्ति घटती है और व्यक्ति मानसिक तनाव से मुक्त होता जाता है। इस उदात्त राग से वर्तमान जीवन की एवं जन्म-जन्म की कुप्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और लोकोपयोगी सद्प्रवृत्तियों का जन्म होता है। इस तरह से इससे एक ऐसे पुण्य की प्राप्ति होती है जिसके द्वारा संचित पाप को नष्ट किए जाने के साथ-साथ समाज में विकासोन्मुख परिस्थितियों का निर्माण होता है। भक्ति की सरसता से व्यक्ति ज्ञानात्मककलात्मक स्थायी सांस्कृतिक विकास की ओर झुकता है। वह तीर्थंकरों द्वारा निर्मित शाश्वत जीवन-मूल्यों का रक्षक बनने में गौरव अनुभव करता है। इस तरह भक्ति व्यक्ति एवं समाज के नैतिक-आध्यात्मिक विकास को दिशा प्रदान करती है। भक्त-कवि भूधरदासजी के ८५ भजनों का संकलन 'भूधर भजन सौरभ' के अन्तर्गत किया गया है। अब हम इस चयन की विषय-वस्तु की चर्चा करेंगे। गुरु की शिक्षा - जीवन में नैतिक-आध्यात्मिक विकास गुरु के मार्गदर्शन के बिना प्राय: असंभव ही होता है । गुरु ने ही हमें यह शिक्षा दी है कि यह मनुष्य देह दुर्लभ है (१८, २२); यह अवसर, यह मनुष्य पर्याय बार-बार नहीं मिलती (३७, ५८); तू इस अवसर को क्यों खोता है (६१)? क्या तू इस नरभव को पाना आसान समझता है (६८)? यह नरभव आसान नहीं है, इसे सोच-समझकर व्यतीत करो (33) । इस अवसर को विषयों में मत गंवाओ (५८, ६३, ६५) । जगत में जीवन थोड़ा है (१८) हे हँस! हमारी शिक्षा मान ले (६४); व्यर्थ गर्व मत कर (६२), तेरी ये बुरी आदतें छोड़ (६३), अपनी प्रमाद -निद्रा
SR No.090108
Book TitleBhudhar Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size2 MB
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