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एकत्व -
अन्यत्व -
(८५)
बारह भावना अनित्य . राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ।। १॥ अशरण - दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार।
मरती विरिया जीव को, कोऊ न राखन हार॥२॥ संसार -
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान। कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान॥३॥ आप अकेलो अवतरे, मरै अकेलो होय। यूँ कबहूँ इस जीय को, साथी सगा न कोय।। ४॥ जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय।
घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय॥५॥ अशुचि - दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह ।
भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह॥६॥ आस्वव - मोह नींद के जोर, जगवासी घूमैं सदा।
कर्म चोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं॥७॥ संवर . सतगुरु देय जगाय, मोह नींद जब उपशमैं ।
तब कछु बनहिं उपाय, कर्म चोर आवत रुकैं ॥८॥ ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर।
या विधि बिन निकसैं नहीं, पैठे पूरब चोर ॥९॥ निर्जरा - पंच महाव्रत संचरन, समिति पंच परकार ।
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार ।। १०॥ लोक - चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान।
तामें जीव अनादि तें, भरमत है बिन ज्ञान॥११॥
भूधर भजन सौरभ
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