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राग सलहामारू
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सुनि सुनि हे साधनि! म्हारे मनकी बात । सुरति सखीसों सुमति राणी यों कहै जी । वीत्यो है साथनि म्हारी ! दीरघकाल, म्हारो सनेही म्हारे घर ना रहें जी ॥ ना वरज्यो रहे साथनि म्हारी चेतनराव, कारज अधम अचेतनके करै जी । दुरमति है साथनि म्हारी जात कुजात, सोई चिदातम पियको चित्त हरै जी ॥ १ ॥ सिखयौ है साथनि म्हारी केती बार, क्यों ही कियो हठी हठ एरी हरै जी । कीजे हो साथनि म्हारी कौन उपाय, अब यह विरह विथा नहिं सही परै जी ॥ २ ॥ चलि चलि री साथनि म्हारी, जिनजीके पास, वे उपगारी इसैं समझावसी जी । जगसी हे सखी म्हारे मस्तक भाग, जो म्हारौ कंथ समझि घर आवसी जी ॥ ३ ॥ कारज हे सखी म्हारी ! सिद्ध न होय, जब लग काल - लबधिबल नहिं भलो जी ।. तो पण हे सखी म्हारी उद्यम जोग, सीख सयानी 'भूधर' मन सांभलो जी ॥ ४ ॥
सुमति रानी अपनी सखी सुरति ( सुधी / भक्ति ) से कहती हैं कि हे सखी!
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मेरे मन की बात सुनो। हे साथिन बहुत काल व्यतीत हो गया हैं, मेरा स्नेही / प्रिय (आत्मा) मेरे घर पर नहीं रहता ।
भूधर भजन सौरभ