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नौ महीने रहा और अपने स्वरूप को छिपाया। बालक अंकुर जब बढ़ने लगा, तब लोगों की दृष्टि में आया। भीतर में सब कुछ अस्थिर-सा था, ये सब कोई जानते थे, जब ऊपर चमड़ी बनी तब फिर सबने देखी। ये अंग वृक्ष के समान हैं। हे सयाने! तू देख हाथ दोनों शाखाएँ हैं, अंगुलियाँ पत्तों के समान हैं और आँखें पुष्प सी रमणीय हैं। स्त्री बेल के समान सुहावनी लगती है, उसका आलिंगन किया जाता है और जिनने गर्भ में आकर जन्म लिया है वे पुत्रादिक पक्षीरूप हैं।
जब उस वृक्ष को देखा तो सुहावना लगा, सबके मन को अच्छा लगा। स्वजन अपने स्वार्थ के कारण उसकी छाया में आते हैं। काम-भोगरूपी फलों के बीच बढ़ते हुए, मन उसी में लुब्ध हो गया। उसके फल चखने में मीठे लगे, परन्तु पीछे पछताना पड़ा।
रोगादि से बल घटा, रूप बिगड़ा, फिर वह ( देह/ वृक्ष) किसी को भी अच्छा नहीं लगने लगा और तभी मृत्यु की आग दहक उठी और वह उसमें समा गया, उसका पता/चिह्न भी शेष न रहा ।
इस मनुष्यरूपी वृक्ष की यह ही दशा है, इस बात को हृदय में धारण कर लीजिए, समझ लीजिए। जो हो चुका वह हो चुका, अब आगे के लिए कुछ यत्न कर लीजिए । धर्मरूपी जल से सींचकर संयम की, तप की धूप दिखाइए अर्थात् उनका पालन कीजिए। भूधरदास कहते हैं कि स्वर्ग और मोक्षरूपी फल मिलें तब ही सुख की प्राप्ति होगी ।
रूखड़ा = वृक्ष। छानी छुपी हुई। रवाँना रमणीय। विरख वृक्ष खोज पता, चिह्न | जंगम = स्थायी न रहनेवाला ।
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भूधर भजन सौरभ