________________
कविवर भूधरदास (वि. सं. १७५०-१८०६; १६९३-१७४९ ई.) हिन्दी भाषा के जैन कवियों में महाकवि भूधरदासजी का नाम उल्लेखनीय है। कविवर आगरा-निवासी थे। ये खण्डेलवाल जाति के थे। भूधरदासजी कवि एवं पंडित होने के साथ-साथ एक अच्छे प्रवचनकार भी थे। आप आगरा के स्याहगंज (शाहगंज) के जैन मन्दिर में प्रतिदिन शास्त्र-प्रवचन करते थे।
भूधरदासजी ने पार्श्वपुराण, जिनशतक एवं भूधर पद-संग्रह की रचना कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है। __पाशवपुराण - पार्श्वपुराण में तेइसवें तीर्थकर पाश्र्वनाथ के पूर्व के नौ भवों का वर्णन किया गया है। नौ भव पूर्व पार्श्वनाथ पोदनपुर के राजा अरविन्द के पंत्री विश्वभूति के पुत्र 'मरुभूति' थे, कमठ इनका भाई था। कमठ के दुराचारोंअनाचारों--अत्याचारों से क्षुब्ध हो मरुभूति ने उसका वध कर दिया। यह बैर अगले आठ भवों तक चला जिसका कवि ने हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। नौवें भव में मरुभूति 'राजकुमार पार्श्व' बनते हैं जो कि भावी तीर्थकर हैं। कमठ का जीव फिर अपना वैर निकालता है और तपस्यारत पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग करता है किन्तु पार्श्वनाथ अपनी तपस्या/साधना से विचलित नहीं होते और केवलज्ञान प्रकट कर सम्मेदशिखर से मोक्ष गमन करते हैं।
यह प्रसाद गुण-युक्त रचना है । इसका समापन कवि ने आगरा में सं. १७८९ (सन् १७३२) में किया।
जैनशतक - इस रचना में १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं । वैराग्य-भाव के विकास के लिए इस रचना का प्रणयन किया गया है । वृद्धावस्था, संसार की असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियों की तपस्या आदि विषयों का निरूपण बहुत रुचिकर ढंग से किया गया है । नीरस और गूढ़ विषयों का निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है।
अनात्मिक दृष्टिवाले लोगों के लिए कवि कहते हैं - संसार के भोगों में लिप्त प्राणी रात-दिन विचार करता रहता है कि जिस प्रकार भी संभव हो धन एकत्र