________________
७६ प्राप्य द्रव्यादिसामग्री भस्मसात्कुरुते स्वयम् ।
कर्मेन्धनानि सर्वाणि तस्मात्सिद्ध इति स्मृतः ॥३५१॥
द्रव्यादि सामग्री को पाकर स्वयं कर्म रूपी ईधन को भस्म करता है, इस कारण सिद्ध के रुप में माना गया है।
अवस्थाभेदतो जीवः पुनस्त्रेधा प्रचक्ष्यते । बहिरात्मान्तरात्मा च परमात्मेति तत्वतः ॥३५२॥
अवस्था भेद की अपेक्षा जीव तीन प्रकार का कहा जाता है । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
हेयोपादेयवैकल्यान्न च वेत्त्यहितं हितम् ।
निमग्नो विषयाक्षेषु बहिरात्मा विमूढधीः ॥३५३॥ विमूढ़ बुद्धि बहिरात्मा इन्द्रिय विषयों में निमग्न होकर हेय और उपादेय से रहित होने के कारण अहित और हित को नहीं जानता है।
अन्तरात्मा त्रिधा क्लिष्टमध्यमोत्कृष्टभेदतः ।
असंयतो जघन्यः स्यान्मध्यमौ द्वौ तदुत्तरौ ॥३५४॥ अधम, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अन्तरात्मा तीन प्रकार की होती है । असंयत जघन्य अन्तरात्मा है, उसके बाद के दो मध्यम अन्तर आत्मा है ।
अप्रमत्तादयः सर्वे यावत्क्षीण कषायकाः।
उत्तमा यतयः शान्ताः प्रभवन्त्युत्तरोत्तरम् ॥३५॥ अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक सब उत्तम अन्तरात्मा शान्त यति उत्तरोत्तर समर्थ होते हैं ।