________________
५४
मोहनीय कर्म के क्षय होने पर कि क्षुधा, पिपासा आदि समर्थ नहीं हैं। अतः द्रव्य कर्मों के आश्रय से उनका अस्तित्व उपचार से है।
अस्तु वा तस्य वेद्योत्थभृक्षाया विचारणा।
अनेक जीवहिंसाद्य पश्यन् भुक्त कथं जिनः ॥२३॥
यदि उनके वेदनीय से उत्थित भोजन करने की विचारणा हो तो अनेक जीवों को हिंसा आदि को देखते हुए जिनेन्द्र भोजन कैसे करते हैं ?
यस्माच्छुद्धमशुद्ध वा स्वल्पज्ञानयुतां जनाः ।
कुर्वन्ति भोजनं तद्वत् केवली कुरुते कथम् ॥२३६॥ चूंकि स्वल्प ज्ञान से युक्त लोग शुद्ध अथवा अशुद्ध भोजन करते हैं । उसी प्रकार केवली कैसे करते हैं ?
अन्तरायान विना तस्य प्रवृत्ति जने यदि ।
श्रावकेभ्योऽति नीचत्वं निन्दास्पदं प्रजायते ॥२३७॥ अन्तरायों के बिना यदि उनके भोजन में प्रवृत्ति हो तो श्रावकों से भी अधिक नीच और निन्दा के पात्र होंगे।
करोति चान्तारायांश्च दृष्टे चायोग्यवस्तुनि ।
तदा सर्वज्ञभावस्य दत्तस्तेन जलाञ्जलिः ॥२३८॥
अयोग्य वस्तुओं के देखने पर यदि वे अन्तरायों को करते हैं तो उन्होंने सर्वज्ञता को जलांजलि दे दी।
तथापि कवलाहारं ये वदन्ति जिनेशिनः । सुरास्वादमदोन्मत्ता जल्पन्ति पूणिता इव ॥२३॥