________________
५३
एकेन्द्रियेषु जीवेषु लेपाहारः प्रजायते ।
श्राहारो मानसो देवसमूहेष्वखिलेष्वपि ॥ २३०॥
1
एकेन्द्रिय जीवों में लेपाहार होता है । समस्त देव समूहों
में भी मानस आहार होता है ।
इति हेतोजिनेन्द्रस्य कवलाहार पूर्विका । देहस्थितिर्नवक्तव्या त्वया स्वप्नेऽपि दुर्लत्ते ! ॥२३१॥
अतः हे दुष्ट बुद्धि वाले ! तुम्हें स्वप्न में भी जिनेन्द्र भगवान् की स्थिति कवलाहारपूर्वक नहीं कहनी चाहिए ।
एकादश जिने सन्ति बुभुक्षाद्याः परीषहाः । तस्मात्केवलिनां भुक्तिरनिवार्या भवादृशैः ॥ २३२॥
जिनेन्द्र भगवान् में क्षुधा आदि ग्यारह परीषह होती है, अतः आप जैसों के मत में केवली भुक्ति अनिवार्य है ।
किमेवं क्रियते मूढ ! पुनश्चवितचर्वणम् । क्षुत्पिपासादयो दोषा यस्मात्पूर्व निराकृताः ॥२३३॥
हे मूढ़ ! इस प्रकार चर्वितचर्वण क्यों करते हैं ? क्योंकि क्षुधा, पिपासा आदि दोषों का निराकरण हम पहले ही कर चुके हैं ।
क्षुत्पिपासादयो यस्मान्न' समर्था मोहसंक्षये । द्रव्य कर्माश्रयात्तेषामस्तित्वमुपचारतः ॥२३४॥ १ अस्याग्रेऽयं पाठ ख- पुस्तके । उक्त चान्यत्रणोकम्मं तित्थयरे कम्मं णारेय माणसो अमरे । णरपसुकवलाहारो पक्खी ओजो णगे लेओ ।। १ ।। २ ह्येते ख. ।