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मिथ्यात्व से मलिन (दूषित) चित्त वाले जीव को बुद्धि अदेव के प्रति देव के रूप में तथा अतत्त्व के प्रति तत्त्व के रूप में हो जाती है।
मधुरं जायते तीक्ष्णं तीक्ष्णं च मधुरायते।
पित्तज्वरातजीवस्य वैपरीत्यं यथाखिलम् ॥२८॥ जिस प्रकार पित्तज्वर के दुःख से दुःखी जीव को मीठी वस्तु भी कड़वी और कड़वी वस्तु भी मीठी लगती है, इसी प्रकार मिथ्यात्वी के सब कुछ विपरीत हो जाता है ।
मद्यमोहाद्यथा जीवो न जानात्यहितं हितम् ।
धर्माधमौन जानातिमिथ्यावासनया तथा ॥२६॥ जिस प्रकार मद्य के मोह से जीव अहित और हित को नहीं जानता है, उसी प्रकार मिथ्या वासना से धर्म और अधर्म को नहीं जानता है।
मिथ्यादष्टेन रोचेत जैन- वाक्यं निवेदिता ।
उपदिष्टानुपदिष्टमतत्वं रोचते स्वयम् ॥३०॥ मिथ्यादृष्टि को उपदिष्ट जैन वाक्य रुचिकर नहीं लगता। उसे उपदिष्ट, अनुपदिष्ट अतत्त्व स्वयं रुचिकर लगते है ।
तन्मिथ्यात्वं जिनः प्रोक्त पंचकान्तवादतः ।
अतोऽहं क्रमशो वच्मि तत्तद्वादविकल्प नम् ॥३१॥ उस मिथ्यात्व के जिनेन्द्रदेव ने एकान्तवाद आदि पांच भेद किये हैं। अतः मैं उन वादों के भेद क्रमश: कहता हैं। १ अत्र हिन चतुर्थी यदारोचेत तदा चतुर्थी यदातुन रोचेत तदा तु षष्ठयेव । २ जनवाक्यं ख.। ३ नां ख. ।