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इन चौदह गुणस्थानों को छोड़कर लोकोत्तमोत्तम सिद्ध उत्पन्न होते हैं। वे सिद्ध अपने शुद्ध प्रात्मसुख के आनन्द रूपी रस के प्रास्वादन में तत्पर रहते हैं।
तत्राद्य यदगुणस्थानं मिथ्यात्वंनाम जायते । पंचा'नां दृष्टिमोहाख्य कर्मणामुदयोद्भवम् ॥२५॥
आदि का मिथ्यात्व गुणस्थान दर्शनमोह नामक पंचकर्मों के उदय से उद्भूत होता है।
विशेष-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की दर्शनमोह संज्ञा है। इनमें मिश्र और सम्यक्त्व के मिलने से सातों की भी दर्शनमोह संज्ञा होती है । कहा भी है
एकधात्रिविधा वा स्यात्कर्ममिथ्यात्वसंज्ञकम् ।
कोद्याद्याद्यचतुष्कं च सप्तते दृष्टिमोहनम् ॥ तत्रस्त्यौदयिको भावो मिथ्यात्वकर्मोदभवः ।
मुख्यतस्तद्वशाज्जन्तोःपरीत्यं प्रजायते ॥२६॥ ..
वहां पर मिथ्यात्व कर्म से उत्पन्न औदयिक भाव है । मुख्यतः उसके वश प्राणी के विपरीतता उत्पन्न होती है ।
प्रदेवेदेवताबुद्धिरतत्त्वे तत्वनिश्चयः ।
मिथ्यात्वाविलचित्तस्य जीवस्य जायते तथा ॥२७॥ १ सप्तानां । २ मिथ्यात्वमनन्तानुबन्धि चतुष्कं चेति पंचानां दृष्टिमोह संज्ञा मिश्रसम्यक्त्वकर्मानुमेलने च सप्नानामपि । तदुक्त
एकधा त्रिविधा वा स्यात्कर्म मिथ्यात्वसंज्ञकम् । . . . क्रोद्याद्याद्यचतुष्कं च सप्तैते दृष्टिमोहनम् ॥