________________
यह रन्तिदेव द्वारा किए गए सुरभितनया (गायों) के पालम्भन (वलिदान) से पृथ्वी पर नदी रूप में प्रवाहित हुई ।
वेदवादी ब्रह्मा को जगत् का कर्ता, शिव को जगत् का संहारक तथा विष्णु को जगत् का रक्षक मानते हैं । इन तीनों मान्यताओं का खण्डन जैन न्याय के ग्रन्थों में किया गया है । कुछ युक्तियां इस प्रकार हैं
शरीरादिक बुद्धिमान् निमित्तकारणजन्य नहीं हैं, क्योंकि उनका उसके साथ अन्वय व्यतिरेक नहीं है । अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा ही कार्यकारण भाव सुप्रतीत होता है।
यदि ईश्वर की सृष्टि इच्छा से जगत् रूप कार्य की उत्पत्ति माने तो प्रश्न होता है कि वह इच्छा 'नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो ईश्वर की तरह उसकी इच्छा के साथ भी व्यतिरेक नहीं बनता है, क्योंकि उसका सदैव सद्भाव रहने से शरीरादिक कार्यो की उत्पत्ति होती रहेगी। यदि इच्छा अनित्य मानी जाय तो वह इच्छा पूर्वक उत्पन्न होगी और वह इच्छा भी अन्य पूर्व इच्छा से उत्पन्न होगी। इस तरह कहीं भी अवस्थान न होगा।
ईश्वर जो स्वत: वीतराग है, का जब तक कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, तब तक उसको वास्तविक कर्ता मानना युक्त नहीं है ।
यदि जगत् के प्राणी अनेकानेक प्रकार की क्रियाओं में स्वेच्छा से प्रवृत्त होते हैं तो प्राणियों के क्रियाकलाप का कर्ता ईश्वर को कहना व्यर्थ है।
: पण्डित वामदेव ने भी इस सम्बन्ध में कुछ तर्क दिए हैं प्रमुख रूप से जिनका आधार वैदिक पुराणों की मिथ्या मान्यतायें हैं । जैनों के अनुसार यह विश्व अनादि और अकृत्रिम है।
यदि विष्णु संसार का रक्षक है तो प्रश्न होते हैं
१. सबको अपने उदर के मध्य में स्थित कर विष्णु संरक्षण करता है तो वह विष्णु कहाँ ठहरता है ? (भावसंग्रह ११४-११५) १
व्यालम्बेथाः सुरभितन यालम्भजां मानयिष्यन् । स्त्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ।।४।।