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मधुपर्क में, यज्ञ में मौर देव-पितृ कर्म में यहां ही पशुओं को मारना चाहिये, अन्यत्र नहीं ।
एष्वर्थेषु पशुहिंसन् वेदतत्वार्थ विद्विजः । आत्मानं च पशु चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥
इन (मधुपर्क - श्राद्धं आदि ) कर्मों में पशुओं को मारता हुआ वेद के तत्वार्थ को जानने वाला ब्राह्मण अपने को और पशु को उत्तम गति में पहुँचाता है ।
मनुः ५ / ४२
इसके उत्तर में स्याद्वाद मंजरी में कहा गया है कि हिंसा करने से यदि दरवाजे ढ़क जाये । अर्थात् फिर नरक में
स्वर्ग की प्राप्ति होवे तो नरक नगर के कोई भी नहीं जावेगा । सांख्य कहते हैं -
यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा कृत्वा यद्यवं गम्यते स्वर्गे नरके
रुधिर कई मम् । केन गम्यते ॥
वेदोक्त प्रकार से यज्ञ के स्तम्भ को छेदकर, पशुओं को मारकर औरं रुधिर से पृथ्वी में कीचड़ मचाकर यदि यज्ञ के कर्ता स्वर्ग में जावेंगे तो फिर नरक में कौन जायेगा ?
वामदेव का कहना है कि जो यज्ञ के लिए मारा जाता है, उसका मांस खाने वाले तथा वह, ये सब यदि स्वर्ग जाते हैं तो पुत्र, बंधू आदि से यज्ञ क्यों नहीं करते हैं, ताकि सब स्वर्ग चले जाय ।
गोयोनि की वन्दना भी मिथ्या श्रद्धान है। यदि गाय इतनी पवित्र हैं तो फिर उसे क्यों बांधा जाता है ? क्यों दुहा जाता है और बड़ी लकड़ी लेकर क्यों उसे मारते हो ?
गो के प्रालंभन का अनेक वैदिक ग्रंथों में उल्लेख आता है । मेघदूत में कालिदास ने चर्मण्वती नदी के विषय में कहा है कि यह रन्तिदेव की कीर्तिरूप है । १. यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्ग प्राप्तिः स्यात्तीर्ह बाढ़ पिहिता नरकपुर प्रतोत्यः २. पृ. ८२ ३. भाव संग्रह ६१-६२ ॥
स्याद्वाद मंजरी पृ. ८२ ।