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त्रियोग योगी साधु के आदि सुनिर्मल सवितर्क सपृथक्त्व कहा गया है ।
श्रुतं चिन्ता वितर्कः स्याद्वीचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकत्वं भवत्येतत्त्रयात्मकम् ॥ ७०२॥
श्रुत चिन्ता या वितर्क है, वीचार संक्रम माना गया है, पृथक्त्व अनेकत्व होता है, इस प्रकार यह त्रयात्मक होता है ।
तद्यथा
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स्वशुद्धात्मानुभूत्यात्मभावा' नामवलंबनात् । अन्तर्जल्पो वितर्कः स्याद्यस्मस्तत्स बितर्कज' म् ॥७०३ ॥
जिसमें अपनी शुद्धात्मानुभूति से आत्मभावों के अवलबन से अन्तर्जल्प वितर्क होता है, वह सवितर्कज होता है ।
श्रर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छब्दान्तरे च संक्रमः । योगायोगान्तरे यत्र सवीचारं तदुच्यते ॥७०४ ॥
जहां पर अर्थ से अर्थान्तर, शब्द से शब्दान्तर और योग से योगान्तर में संक्रमण होता है, वह सवीचार कहा जाता है ।
द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद्गुणान्तरं व्रजेत् । पर्यायादन्यपर्यायं सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥७०५ ॥
द्रव्य से द्रव्यान्तर, गुण से अन्य पर्याय की ओर जाता है, अतः
गुणान्तर तथा एक पर्याय से सपृथक्त्व होता है ।
इति त्रयात्मकं ध्यानं ध्यायन् योगी समाहितः । संप्राप्नोति परां शुद्धि मुक्तिश्रोवनितासखीम् ॥७०६ ॥
१ भावश्र तावलम्बनात् ख । २ ज : क.