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भली-भांति जिनागम को जानकर कहे गए ध्यान की साधना से क्षपक श्रेणी पर चढ़कर मुक्ति गृह को प्राप्त करता है।
इति' षष्ठं प्रमत्तगुणस्थानं । अप्रमत्तगुणस्थानमतो वक्ष्ये समासतः ।
भवन्त्यत्र त्रयो भावाः षट्स्थानोदिता यथा ॥६५२।।
अब संक्षेप में अप्रमत्त गुणस्थान को कहता हूँ। यहां पर षट्स्थानों में कहे गए अनुसार तीन भाव होते हैं ।
संज्वलनकषायाणां जाते मन्दोदये सति ।
भवेत् प्रमादहीनत्वादप्रमत्तो महाव्रती ॥६५३।। संज्वलन कषायों का मन्द उदय होने पर प्रभादहीन होने से महाव्रती होता है।
नष्टशेषप्रमादात्मा व्रतशीलगुणान्वितः ।
ज्ञानध्यानपरो मौनी शमनक्षपणोन्मुखः ॥६५४॥ जिसके शेष प्रमाद नष्ट हो गए हैं, जो व्रत और शील गुणों से युक्त हैं, ज्ञान और ध्यान में तत्पर रहता है, मौनव्रत धारण करता है और कर्मों का शमन और क्षपण करने (नष्ट करने) की ओर उन्मुख है।
एकविशतिभेदात्ममोहस्योपशमाय च ।
क्षपणाय करोत्येष सध्यानसाधनं यमी ॥६५॥ १ इति ख -पुस्तके नास्ति। २ षष्ठं क-पुस्तके नास्ति ।