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स्थानेष्वेकादशस्वेवं स्वगुणाः पूर्वसदगुणः ।
संयुक्ता प्रभवन्त्येते श्रावकाणां यथाक्रमम् ॥५४६॥ - अपने पूर्व सद्गुणों से युक्त ये यथाक्रम ग्यारह स्थानों में विभक्त हैं।
प्रात्तराद्रं भवेद्धयानं मन्दभावसमाश्रितम।
मुख्यधम्यं न तस्यास्ति गृहन्यापरसंश्रयात् ॥५५०॥ १०... इस श्रावक को आर्त रौद्र ध्यान मन्द हो जाते हैं, किन्तु ग्रहव्यापार का प्राश्रय लेने से मुख्य धर्म नहीं होता हैं ।
गौणं हि धर्मसद्ध्यानमुत्कृष्टं गृहमेधिनः ।
भद्रध्यानात्मकं धयं शेषाणां गृहचारिणाम् ॥५५१॥ उत्कृष्ट गृहस्थ के धर्मध्यान गौण होता है । शेष गृहस्थों के भद्रध्यानात्मक धर्म्यध्यान होता हैं।
जिनेज्यापात्रदानादिस्तत्र कालोचितो विधिः। भद्रध्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयादबुधैः ॥५५२॥
गहस्थ, धर्म के प्राश्रय से जिनेन्द्र भगवान की पूजन, पात्रदानादि कालोचित विधि विद्वानों ने भद्रध्यान मानी है ।
पूजादानं गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
आवश्यकानि कर्माणि षडेतानि गृहाश्रमे ॥५५३॥ गृहाश्रम में पूजा, दान, गुरुओं की उपासना, स्वाध्याय, संयम और तप । ये छह आवश्यक कर्म होते हैं।
नित्या चतुखाख्या च कल्पद्रुमाभिधानका। भवत्याष्टाह्निकी पूजा दिव्यध्वजेति पञ्चधा ॥५५४॥