________________
१२०
जो सदा निर्ममत्व का सेवन करता हुआ दश प्रकार के परिग्रह को छोड़कर सन्तोष रूपी अमृत से संतृप्त होता है, वह परिग्रहत्यागी होता है ।
अपरिग्रहप्रतिमा ।
ददात्यनुमति नेव सर्वोच्वंहिककर्मसु । भवत्यनुमतत्यागी देशसंयमिनां वरः ॥ ५४२ ॥
जो इस लोक सम्बन्धी समस्त कार्यों में अनुमति नहीं देता है, वह देशसंयभियों में श्रेष्ठ अनुमति त्यागी होता है ।
श्रनुमतत्यागप्रतिमा ।
नोद्दिष्टां सेवते भिक्षामुद्दिष्टविरतो गृही । arat' ग्रन्थसंयुक्तस्त्वन्यः कौपीनधारकः ॥ ५४३ ॥
उद्दिष्टविरत गृहस्थ उद्दिष्ट ( अपने उद्देश्य से बनाई गई) भिक्षा का सेवन नहीं करता है । वह दो प्रकार का होता है - १. ग्रन्थ संयुक्त और २. कौपीनधारक ।
१ द्वावेको ।
श्राद्यो विदधते (ति) क्षौरं प्रावृणोत्ये कवाससम् । पंचभिक्षासनं भुक्त पठते गुरुसन्निधौ ॥५४४ ॥
आदि का क्षौरसामग्री धारण करता हैं, एक वस्त्र से अपने को आच्छादित करता है । पाँच घरों से लाई हुई भोजन सामग्री को खाता है और गुरु के समीप में पढ़ता है ।
श्रन्यः कौपीनसंयुक्तः कुरुते केशलुञ्चम् । शौचोपकरणं पिच्छ मुक्त्वान्यग्रन्थवर्जितः ॥ ५४५॥