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________________ ११२ एवं सामायिकं सम्यग्यः करोति गृहाश्रमी। दिनैः कतिपयरेव स स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ॥५०५॥ जो गृहाश्रमी इस प्रकार भली-भाँति सामायिक करता है, वह कुछ ही दिनों में मुक्ति रूपी लक्ष्मी का स्वामी हो जाता है। मासं प्रति चतुर्वेव पर्वस्वाहारवर्जनम् । सकृद्भोजनसेवा वा कांजिकाहारसेवनम् ॥५०६॥ मास के चार दिन पर्वो पर आहार का त्याग कर दे, एक बार भोजन करे अथवा काँजी के आहार का सेवन करें। एवं शक्त्यनुसारेण क्रियते समभावतः। स प्रोषद्यो विधिः प्रोक्तो मुनिभिर्धर्मवत्सलः ॥५०७॥ इस प्रकार समभावपूर्वक शक्ति के अनुसार की जाने वाली उस प्रोषध की विधि के विषय में धर्मवत्सल मुनियों ने कहा है । भुक्त्वा संत्यज्यते वस्तु स भोगः परिकीर्त्यते । उपभोगोऽसकृद्वारं भुज्यते च तयोमितिः ॥५०८॥ जो वस्तु भोगकर त्याग दी जाती है, वह भोग कहा जाता है । किसी वस्तु का अनेक बार भोग उपभोग कहा जाता हैं । इन दोनों का परिमाण भोगोपभोग परिमाण हैं । संविभागोऽतिथीनां यः किचिद्विशिष्यते हि स । न विद्यते तिथिर्यस्य सोऽतिथिः पात्रतां गतः ॥५०॥ १ परिमाणं ।
SR No.090105
Book TitleBhav Sangrah
Original Sutra AuthorVamdev Acharya
AuthorRamechandra Bijnaur
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size10 MB
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