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एवं सामायिकं सम्यग्यः करोति गृहाश्रमी। दिनैः कतिपयरेव स स्यान्मुक्तिश्रियः पतिः ॥५०५॥
जो गृहाश्रमी इस प्रकार भली-भाँति सामायिक करता है, वह कुछ ही दिनों में मुक्ति रूपी लक्ष्मी का स्वामी हो जाता है।
मासं प्रति चतुर्वेव पर्वस्वाहारवर्जनम् ।
सकृद्भोजनसेवा वा कांजिकाहारसेवनम् ॥५०६॥ मास के चार दिन पर्वो पर आहार का त्याग कर दे, एक बार भोजन करे अथवा काँजी के आहार का सेवन करें।
एवं शक्त्यनुसारेण क्रियते समभावतः।
स प्रोषद्यो विधिः प्रोक्तो मुनिभिर्धर्मवत्सलः ॥५०७॥ इस प्रकार समभावपूर्वक शक्ति के अनुसार की जाने वाली उस प्रोषध की विधि के विषय में धर्मवत्सल मुनियों ने कहा है ।
भुक्त्वा संत्यज्यते वस्तु स भोगः परिकीर्त्यते ।
उपभोगोऽसकृद्वारं भुज्यते च तयोमितिः ॥५०८॥
जो वस्तु भोगकर त्याग दी जाती है, वह भोग कहा जाता है । किसी वस्तु का अनेक बार भोग उपभोग कहा जाता हैं । इन दोनों का परिमाण भोगोपभोग परिमाण हैं ।
संविभागोऽतिथीनां यः किचिद्विशिष्यते हि स ।
न विद्यते तिथिर्यस्य सोऽतिथिः पात्रतां गतः ॥५०॥ १ परिमाणं ।