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६७ रौद्रध्या'नेऽथ जीवेन कषायविषमोहिना।
प्रा द्यश्वभ्रावनौ जन्म बद्धायुष्केण लभ्यते ॥४३६॥
रौद्रध्यान होने पर कषायरूपी विष के मोह से बद्धायुष्क जीव प्रथम नरक की पृथिवी को प्राप्त करता है ।
गौणवृत्या भवेत्तस्य धर्मध्यानं कथंचन ।
प्राप्तोपज्ञस्य शास्त्रस्य चिन्तनश्रवणात्मकम् ॥४३७॥ कथंचन गौण रूप से उसके प्राप्त के द्वारा उपदिष्ट शास्त्र के चिन्तन श्रवण रूप धर्मध्यान होता है ।
मनः सदाधिगमे प्रवृत्तं वाक् पाठयोगे नयने च वर्णे।
श्रुती श्रुतौ निश्चलविग्रहश्च ध्यानेऽपि चैकाग्रयमिहापि सौम्यं ॥१॥
मन यथार्थ अर्थ की जानकारी में प्रवृत्त होता है, वाणी पाठ करती है, दोनों नेत्रों का वर्णों से योग होता है, दोनों कान शास्त्र श्रवण में लगते हैं, शरीर निश्चल होता है, ध्यान में एकाग्रता आती है और संसार में भी सौम्यता आती है।
असंयतो निजात्मानमकेवारं दिन प्रति ।
ध्यायत्यनियतं कालं नो चेत्सम्यक्त्वदूरगः ॥४३८॥
असंयत होने पर भी प्रतिदिन एक बार अनियत काल यदि अपनी आत्मा का ध्यान करता है तो वह सम्यक्त्व से दूर नहीं होता है। प्रवचनतिलक में कहा है१ ध्यानेन जीवेन. ख.। २ आद्यः ख. ।