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________________ ७६ भरतेश वैभव स्त्रियोंके वीचमें व्यतीत हुआ है, इसलिए आत्म-विचारके लिए कुछ भी समय नहीं मिला। बिनोदलीलामें ही सब काल व्यतीत हुआ, इसलिए कुछ समय पर्यन्त आत्मविचार करना चाहिये । तदनंतर सर्व प्रकारके गल्योंका त्यागकर भरतजी पल्यंकासनमें आँख मींचकर बैठ गये एवं अंदर नमल्योगको धारण करने लगे। अभीतक बे स्त्रियों के बीच में रहकर उनसे विनोद कर रहे थे । वह विचार किधर गया? उनका तोलेश भी उनके हृदयमें अब नहीं है । दस हजार वर्षांसे तपश्चर्या करनेवाले मुनिके समान इनके चिनकी अन्न निर्मलता है । आश्चर्य की बात है। हाँ! बेनक्रवर्ती हैं। उनकी आज्ञाका कौन उल्लंघन कर सकता है ? इन्द्रियों को बह आज्ञा दे कि तुम अपना काम करो तो वे इंद्रियाँ नौकरोंके समान उनके उपयोगमें आती हैं। यदि वह आज्ञा देवें कि जाओ अब हमें तुम्हारी आवश्यकता नहीं है, तो वे अपने आप भागती हैं । प्रतीत होता है कि सम्राट्ने अब भी उन्हें आज्ञा दी होगी । अतएव उनका कुछ उपयोग नहीं हो रहा है । बालकगण पतंग जब खेलते हैं, जब उनकी इच्छा खेलने की होती है, तब पतंगको खेलते हैं। यदि उनको इच्छा न हो, तो पतंगको डोरीको लपेटकर रखते हैं । इसी प्रकार भरतके चित्तकी परिणति है । विषयाभिलाषामें उनकी इच्छा है तो वे अपने मन व इंद्रियों को उधर जाने देते हैं, नहीं तो उसे अपनी इच्छानुसार रोक लेते हैं। कभी अपनी इंद्रियों में बाहरका काम लेते हैं, कभी उन्हीं इद्रियोंसे आत्मकार्य कराते हैं। कभी अपनी आँख के उपयोगको बाहर लगाकर सेवकोंसे इच्छित कार्यको कराते हैं और कभी उन्हीं आँखोंको मींचकर अन्दरसे उन इंद्रियरूपी सेवकोंसे अपनी आत्माकी सेवा कराते हैं । बे बाहरसे इन्द्रियगोगोंको भोग रहे हैं । अन्दरमे अतीन्द्रिय मुग्नका अनुभव करते है। इसीका नाम जितेंद्रियता है। इन्द्रियोंके भोगोंको भोगते हुए भी अतींद्रियसुखका अनुभव होना यह सामान्य बात नहीं है। लोकमें ऐसे बहुतसे तपस्वी हैं, जो अपना सिर मुंडाते हैं, शरीर सुखाते हैं, अनेक प्रकारके कष्टोंको सहन करते हैं । परन्तु ये मन्त्र बाह्य तप हैं। भरतने अपने मनके ऊपर आधिपत्य जमा लिया है। उनकी
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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