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________________ भरतेका मन लीलाके लिए भरसेशभव काव्यको रचनाकी, आत्मसुखकी अपेक्षा करनेवाले उसे अध्ययन करें। जिनको चाहिये वे सुनें, जिन्हें नहीं चाहिये वे न सुनें, उपेक्षा करें। मुझे न उसमें व्याकुल है और न संतोष है। मैं तो निराकांक्षी है। भंगांचजको आदि लेकर दिग्विजय, योगविजय, मोक्षविजयका वर्णन किया है और यह पांचवां अकीतिविजय है / यहाँपर पंचकल्याणकी समाप्ति होती है। पंचविजयोंका भक्तिसे अध्ययनकर जो प्रभावना करते हैं वे नियमसे पंचकल्याणको पाकर मुक्ति जाते है। यह निश्चित सिद्धान्त है। भरतेश वैभव अनुपम है, भरतेशके समान ही भरतेशके पुत्र मी राज्य वैभवको भोगकर मोक्षसाम्राज्यके अधिपति बने / यह भरतेशक सातिशय पुष्यका फल है। इस जिनकथाको जो कोई भी सुनते हैं, उनके पापबीजका नाश होता है / लोकमें उनका तेज बढ़ता है पुण्यकी वृद्धि होती है। इसना ही नहीं, आगे जाकर वे नियमसे अपराजितेश्वरका दर्शन करेंगे। प्रेमसे इस ग्रन्थका जो स्वाध्याय करते हैं, गाते हैं, सुनते हैं एवं सुनकर आनंदित होते हैं वे नियमसे देवलोकमें जन्म लेकर कल श्रीमंदर स्वामीका दर्शन करेंगे। वृषभमासमें प्रारम्भ होकर कुम्भमासमें इस कृतिकी पूर्ति हुई। इसलिए हे वृषभांक, हंसनाथ ! चिदम्बर पुरुष ! परमात्मन ! तुम्हारी जय हो। हे सिद्धात्मन् ! आनन्द-लोकनाटयावलोकमें वक्षा हो। ब्राह्मानन्द सिद्ध हो ! समृद्ध हो ! ध्यानकगम्य हो ! हे मोकासंधान ! निरंजनसिद्ध ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये, यही मेरी प्रार्थना है। इति सर्वमोक्ष संषि अर्ककोतिविजय नामक पंचकल्याण समाप्तम् ( इति भद्रं भूयात् )
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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