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भरतेश वैभव माता-पिताओंको भक्ति, बहिनोंको प्रीति, सालोंकी सरसता, पुत्र. पुत्रियोंका प्रेम और सबसे अधिक स्त्रियोंका संतोष भरतेश्वरके समान किसे प्राप्त हो सकते हैं । राज्यपालनके समय कोई चिंता नहीं, तपश्चर्या के समय कोई कष्ट नहीं । सन्तोषमें ही थे, और सन्तोषके साथ ही मुक्ति गये । धन्य है।
मुक्तात्मा सभी सदृश्य है । परन्तु संसारमें अतुल भोगके बीच रहने पर भी आत्मशक्तिको जानकर क्षणमात्रमें मुक्तिको प्राप्त करनेवाली गुस्तिके प्रति मेरा हृदय नाकारा ! पिताको दो रानियोंके रहनेपर भी हजार वर्ष तपश्चर्या कर मुक्ति जाना पड़ा, कुछ कम लाख रानियोंके होते हुए भी भरतेश्वरने क्षणमात्रमें मोक्ष प्राप्त किया। यह आश्चर्य है। इसमें छिपानेकी बात क्या है ? प्रथमानुयोगमें प्रसिद्ध वेसठशलाका पुरुषों में इस पुरुषोत्तम-भरतेश्वरको सर्वश्रेष्ठ समझकर उसकी प्रशंसा संतोषके साथ मैंने की।
भोगोंके बीच रहते हुए भी हंसनाथके योगमें मग्न होकर क्षणमात्र मुक्सिको प्राप्त होनेवाले भरतभास्करका यदि वर्णन न करें तो रस्नाकर सिद्ध आरमसुखी कैसे हो सकता है, वह गंवार कहलाने योग्य है। ___ श्रृंगारके वशीभूत होकर भोगकथाओंको सुनते हुए भव्यगण न बिगड़े इस हेतुसे अंगसुखी और मोक्षसुखी भरतेश्वरका कथन श्रृंगारके साप वर्णन किया।
मैंने काव्यमें दुष्ट, दुराचारी व नीच सतियोंका वर्णन नहीं किया है । सातिशय पुष्पशील भरतेश्वर व उनकी स्त्रियोंका वर्णन किया है जो इसे स्मरण करेंगे उनको पुण्यका बंध होगा।
इस कथानकको मैंने जब वर्णन किया तब लोकमें बहुतसे लोगोंको हर्ष हुआ । परन्तु ८-४ गुण्डोंको बहुत दुःख भी हुआ । मैंने कोई लाम व कीर्तिकी लोलुपतासे इस कृतिका निर्माण नहीं किया । कीर्ति तो अपने माम आ जाती है। परन्तु कुछ धूर्त कीतिकी अपेक्षा करते हुए उसकी प्रतिक्षा करते हैं । कीर्तिको कामना से वे कविता करने लग जाते परन्तु वह आगे नहीं बढ़ती है, और न ही कानको ही शोभती है । फिर कुछ भी न बने तो "जाने दो, इस नवीन कविताको" कहकर प्राचीन शास्त्रोंमें गायत करते हैं । वे लोग एक महीने में जो शास्त्रका अध्ययन करते हैं वे मुझे एक दिनमें अवगत होते हैं । तथापि उन बाह्यविषयों के प्रतिपादनसे क्या प्रयोजन है, यह समझकर मैं अन्तरंगमें मग्न रहा । बाह्य वाक्यप्रपंच