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भरतेश वैभव एवं तीनों कूमारों को बैठने के लिए कहा । वे तीनों पासमें ही आसनपर बैठ गए । अर्ककीर्ति राजाने कहा कि भाई महाबल ! पिताजीको मोक्ष जानेमें कुछ देरी नहीं लगी। नहीं तो क्या तुम्हें में खबर नहीं देता, यह कैसे हो सकता है | भाई ! आयुष्य एकदम क्षीण हो गया इसलिए पिताजीने इस भूभारको जबर्दस्तो मुझपर डालकर वायुवेगसे कर्मोको जलाया एवं कंवल्यधाममें पधारे।
उत्तर में बुद्धिमान् महाबल राजाने कहा कि भैया! आपका इसमें क्या दोष है, हमें कुछ दुःख हुआ, इससे बोले । परन्तु हम पुण्यहीन हैं। अतएव हमें पिताजीका अन्तिम दर्शन नहीं हो सका।
भैया ! पिताजी गए तो क्या हुआ? अब तो हमारे लिए पिताजीके स्थानमें आप ही हैं ! इसलिए हमें आज आपसे एक निवेदन करना है। यह कहते हुए तीनों कुमार एकदम उठे व महाबल राजाने बड़े भाईको हाथ जोड़कर कहा कि भैय्या ! कृपाकर हमारी प्रार्थनाको स्वीकार करना चाहिए। भैय्या ! पिताजी जब गए तभी हमारे मनका संतोष भी उन्होंके साथ चला गया, मनमें भारी व्यथा हो रही है। शरीर हमें भावस्वरूप मालूम हो रहा है । अब तो यह जीवन हमें स्वप्नसा मालूम हो रहा है।
हिमवान पर्वत और सागरांत पृथ्वीको पालन करनेवाले पिताजीका अखंद षट्खंडवैभव जब अदृश्य हुना तो जोवनोपयोगके लिए प्रदत्त हमारी छोटीसी सम्पत्ति स्थिर कैसे मानी जा सकती है ?
भैया ! पिताजोने अवधिज्ञानके बलसे अपने आयुष्यके अंतको पहचान लिया । एवं योग्य उपाय कर मुक्तिको चले गये । हमें तो हमारे आयुष्यको जाननेकी सामर्थ्य ही कहा है ?
ज्येष्ठ सहोदर ! शरीर नाशशील हैं, आत्मा अविनश्वर हैं, यह बात बार-बार पिताजी हमें कहते थे ऐसी हालतमें नाशशील शरीरको ही विश्वास कर नष्ट होना क्या बद्धिमानोंका कर्तव्य है ? आप ही कहिये । भैया ! इसलिए हम दीक्षावनमें जाते हैं। हमें सन्तोषके साथ भेजो।" इस प्रकार कहते हुए तीनों कुमार अर्कफीति के चरणों में साष्टांग नमस्कार करने लगे। राजा अकीतिके हृदयमें बड़ा भारी धक्का पहुंचा । उन्होंने भाइयोंसे कहा कि भाई ! उठो, अपन विचार करेंगे । तब तीनों कुमारोंने कहा कि हम उठ नहीं सकते हैं, हमारो प्रार्थनाको स्वीकार करोगे तो उठेंगे । नहीं तो नहीं उठेंगे।