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सर्वनिवेग संधिः
परम परंज्योति कोटिचंद्राविष्यकिरण सुज्ञानप्रकाश । सुरसुमकुटमणि रंजितचरणाम्म शरण श्रीप्रथमजिनेश ॥
परमात्मन् ! क्या कहूँ, उस भरतेश्वरकी महिमाको, उन्होंने जब मुक्तिको प्राप्त किया तो लोक में सर्व जीव वैरराज्य सम्पन्न हुए। लोकमें अग्रगण्य भरतेश्वरका भाग्य जब इस प्रकारका है तो हमारी संपत्तिका क्या ठिकाना ? यह कभी स्थिर रह सकती है ? धिक्कार हो, इस विचारसे लोग अपनी सम्पति आदिको छोड़कर दीक्षित हो रहे हैं ।
पखंडाधिपति आरले जब मोगल साग किया तो हम लोग इस अल्पसुखमें फँसे रहें यह ग्वालोंकी ही वृत्ति है, बुद्धिमान इसे पसन्द नहीं कर सकते हैं, इस विचार से बुद्धिमान् लोग अपने परिग्रहोंको त्यजकर कोई तपस्वी बन रहे हैं ।
भरतेश्वर तो महाविवेकी बुद्धिमान था, जब उसने इस विशाल भोगको परित्याग किया, उसे जानते देखते हुए भी हम लोग मोहमें फँसे रहें · तो तब यह भेड़ियोंकी वृत्ति है। इसका परिस्याग करना ही चाहिए, इस विचारसे कोई तपश्चर्याकी ओर बढ़ रहे हैं ।
भरतेश्वर के रहते हुए तो संसारमें रहना उचित है, परन्तु उसके चले जानेपर भिक्षासे भोजन करना ही उचित है, इसमें उत्तम सुख है। इस 'विचारसे कोई तपस्वी बन रहे हैं ।
स्त्रीपुरुष सभी वैराग्यसे युक्त हो रहे हैं। कुछ लोग एकत्रित होकर चिन्तासे विचार करने लगे कि इस प्रकार सभी स्त्रीपुरुष दीक्षित हो जाय तो इनको आहार देनेवाले कौन रहेंगे ? इस प्रकारको चिन्ताका अवसर प्राप्त हुआ। जिनका कर्म ढीला हो गया है वे तो दीक्षित होकर चले गये जिनका कर्म दृढ़ था, कठिन था वे तो अपने घरमें ही रहकर निर्मल मुनियोंकी सेवा सुश्रूषा करने लगे । धर्मके लिए दारिद्र्य कहाँ ?
पोदनपुरके अधिपति महाबल राजा विरक्त होकर दीक्षा के लिए सन्नद्ध हुआ । उसने अपने दोनों भाइयोंको राज्यपालन करनेके लिए माह