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________________ भरतेश वैभव ર૧૭ हुधा एवं आरामके साथ उसके साथ रहा । वह परमानन्दसुख आज उसे मिला इसलिए आज उसकी आदि है, परन्तु वह कभी नष्ट होनेवाला नहीं है अतएव अनन्त है। इस प्रकार के अविनश्वर अमृतकान्ताके सुखको उस शृंगारसिद्धिने प्राप्त किया। अब उनके रूप दो विभागमें नहीं है । दोनों एक रूप होकर रहते हैं। इनके अद्वैत प्रेमको देखकर अोर पड़ोपो होगा व मुक्तिकान्तायें प्रसन्न होने लगी है। उस श्रृंगारसिद्धने तीन प्रकारके रत्न जो कहे गये हैं उनको एक ही रूप में अनुभव किया । उसे भो वहाँपर अमतस्त्रीरत्नके रूपमें देखा। इस प्रकारका वह रलकारसिद्ध हंसनायके मनोरत्नगेहमें परमानन्दमय सुखसे निवास करने लगा। ___ इधर अयोध्याके महल में स्त्रियों के बीच दुःख समुद्र उमड़ा पड़ा था उसे अर्ककीति और आदिराजने शान्त किया । उनको अनेक प्रकारसे सांत्वनपर उपदेश किया । संसारसुख किसके लिए स्थिर है ? कैवल्यसिद्धिका नाश कभी नहीं हो सकता है। हंसनाथकी भक्ति क्या नहीं दे सकता है ? इसलिए हंसनाथ ही हमारे लिए शरण है । इस प्रकार उन्होंने उन स्त्रियोको समझाया। ___ अब कुछ समय में ही अबिलम्ब अफ्रीति व आदिराज भी परम दीक्षाको ग्रहण करेंगे। उसे कलावंत सज्जन अकंकीति-विजयके नामसे वर्णन करेंगे। इधर पराक्रमियोंके स्वामी भरतेश्वरकी निर्वाण पूजा शक्र आदि प्रमुखोंने सुक्रम के साथ की एवं अपने-अपने स्थानपर चले गए। जोवन भर शरीरमें जरा भो न्यूनताका अनुभव न करते हुए दोर्ध. फालतक सुखोंको अनुभव कर एकदम भरतेश्वर मोक्ष साम्राज्यके अधिपति बने । यहाँपर मोक्षविजय नामक चौथा कल्याण पूर्ण होता है। भरतेश्वरकी महिमा अपार है वह अलौकिक विभूति है । संसारमें रमे रहे तबतक सम्राट्के वैभवसे ही रहे, तपोवनमें गये तो ध्यान साम्राज्यके अधिपति बने । वहाँसे भो कर्मोंपर विजय पाकर मोक्षसाम्राज्यके अधिपति बने । उनका जीवन सातिशय पुण्यमय है । अतएव मोक्षसाम्राज्य में उनको अधिष्ठित होनेके लिए देरी न लगी, उनकी सदा भावना रहती पी कि हे परमात्मन् ! अनेक चिन्ताओंको छोड़कर मैं एक ही पाचना करता हूँ, वह यह कि तुम हर समय मेरी रक्षा करो।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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