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भरतेश वैभव हुआ, हमारा अनुभव तो यह है। परन्तु आपके मनका विचार क्या है कौन जाने ? यहाँपर हमारी सासुदेवियां नहीं हैं, हमारी बहिनें भी अदृश्य हो गई हैं, मामाजीका पता ही नहीं, ऐसी हालतमें यह सम्पत्ति क्षण नश्वर हैं, इसपर मोह करना उचित नहीं, छो ! धिक्कार हो" इस प्रकार भरतेश्वर पुत्र-वधुएँ विलाप कर रही थीं।
भरतेश्वरकी पुत्रवधुओंको दुःख हो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ? लोककी समस्त स्त्रियों ही उस समय दुःखमें मग्न थीं। क्योंकि भरतेश्वर परदारसहोदर कहलाते थे।
लोकके समस्त ब्राह्मणगण भी भरतेश्वरके वियोगसे दुःखसंतप्त हो रहे हैं । हे गण्य ! भरतेश्वर ! आपका इस तरह चला जाना क्या उचित है ! वस्त्ररत्नहिरण्यभूमिके दाताका इस प्रकार वियोग ! क्या करें। हमारा पुण्य क्षीण हुआ है।
विशेष क्या, मागं चलनेवाले पथिक, पत्तनमें रहनेवाले नागरिक, परिवारजन, विद्वान्, कविजन, राजा, महाराजा, माण्डलिक आदि सभीने कामदेबके अग्रज भरतेश्वरके मुक्ति जानेपर रात्रिदिन दुःख किया । मनुष्योंको दुःख हुआ इसमें आश्चर्य हो क्या है। हाथी, घोड़ा, गाय आदि पशुओंने भी घास आदि खाना छोड़कर आँसू बहाते हुए दुःख व्यक्त किया।
विजयपर्वत नामक पट्टके हाथी और पवनंजय नामक पट्टके घोड़ेको भी बहुत दुःख हुआ। उन दोनोंने आहारका त्याग किया एवं शरीरको त्यागकर स्वर्गमें जन्म लिया । भरतेश्वरका संसर्ग सबका भला ही करता है। गृहपतिने दीक्षा लो, विश्वकर्म घरमें ही रहकर व्रतसंयमसे युक्त हुआ । आगे अयोध्यांक भी अपने हितको विचार कर दीक्षा लेगा।
चक्ररत्न आदि ७ रल जो अजीव रत्न हैं, शुक्रके अस्तमानके समान अदृश्य हुए । चक्रवर्तीके अभावमें वे क्यों रहने लगे ?
जन रत्नोंको किसने ला दिया ? उनको उत्पन्न किसने किया ? सम्राट्के पुण्यसे उनका उदय हुआ। सम्राट्के जानेपर उनका अस्त हुआ। जैसे आये वैसे चले गये, इसमें आश्चर्य क्या है ?
चक्रवर्तीके पुण्योदयसे विजयाधमें जिस वजकपाटका उद्घाटन हुआ था, उसका भी दरवाजा अपने आप बन्द हुआ। चक्रवर्तीका वंभव लोकमें एक नाटकके समान हुआ।