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________________ २४६ भरतेश वैभव और लोकके बाल विवातवलयको भी उस अद्वैत परमात्माने व्यापः लिया था। गुरु हंसनाथको महिमा भगवान् भादिप्रभु और भरतेश ही जानते हैं, अन्य मनुष्यों को उसका परिज्ञान क्या हो सकता है ? जिस प्रकार षखंड दिग्वजय के लिए सम्राट् निकले थे एवं षट्खंड विजयके बाद अपने नगरको ओर निकले उसी प्रकार यहाँपर त्रिलोक विजयी होकर अब अपने शरीरकी ओर ही लौटे । भुवन-पूरणसे प्रतरप्रतर से कपाट और कपाटसे देडप्रक्रियाकी ओर बढ़कर अपने मूल शरीर में हो आत्मप्रदेशमें प्रविष्ट हुआ । स्थूल वाङ्मनोदेहकी चंचलताको क्रमशः दुर कर उस परमात्मयोगीने लग, गोत्र में नवनीतको मोरगरी लाफर रक्खा। पासिया कोको नष्ट करनेपर जिन नामाभिधान हुआ, उसे ही तीर्थकर पदके नामसे भी कहते हैं। बाद में शेष कमोंको भी नष्ट करनेका उस वीराणिने उद्योग किया । तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें ७२ प्रकृतियोंका नाश हुआ और बाद में १३ प्रकृतियाँ भी एकदम नष्ट हुई। उस समय बिजली के समान शरीर अदृश्य हुआ और वह परमात्मा लोकाग्र भागपर जाकर विराजमान हुआ। इस बातके वर्णनमें ही विलम्ब हुआ। परन्तु योगमलसे उन कोको मष्ट करनेमें तो पाच हस्वाक्षरों के उच्चारणका ही समय लगा, अधिक न लगा । इतने हो अल्प समयमें कर्मदानवका मदन उस बोरने किया। समय अत्यन्त सूक्ष्मकाल है, एक हो समयमें सात रज्जु परिमित कोकाकाशके उस मार्गको तय कर वह परमात्मा लोकापभाग में पहुंच , गया । उसके सामथ्र्यका क्या वर्णन किया जाय । बद अष्टकर्म तो नष्ट हए । अब विशुद्ध अष्ट गुण वहाँपर पुष्ट होकर उत्पन्न हुए। उस समय उद्धत (उत्तम ) मुनि, जिन आदि संज्ञा भी विलीन हुई । अब तो उस परमात्माको सिद्ध कहते हैं ! दिव्य सम्यमत्व, शान, दर्शन, वीय, सूक्ष्म, अवगाह, अगुरुलधुत्व अव्यावाष इस प्रकार आठ गुण व सिद्ध योगोको प्राप्त हुए। इसे हो नवकेवललन्धि कहते हैं । इस प्रकार आठ गुणोंसे वह परमात्मा सुशोभित हुमा । यथापि दरकपाटादि अवस्थामें वह आत्मा विशाल आकृतिमें था
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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