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________________ भरतेश वेभव २३५ हुए। इसलिए उन राज्यवैभवोंमें कोई महत्त्व नहीं है। अतएव इस अनुपम आत्मराज्य वैभवपर वह सम्राट् आरूढ़ हो गया है । ___ आज वह आत्मा अपने शरीरके प्रमाणते है । परन्तु कल वह तीन लोकमें व्याप्त होता है | परमात्मसाम्राज्यकी महत्ता अनुपम है। उसी साम्राज्यका अब यह राजा है। पहले मंत्री, सेनापति आदिके द्वारा परतन्त्रतासे राज्यपालन हो रहा था। उससे भरतेशकी तप्ति हई। अब आस्मराज्यको पाकर स्वतत्रसासे उसका पालन कर रहा है। पहलेके राज्यको नरेशने अस्थिर समझा था, और आत्मराज्यको स्थिर समझा था। अस्थिर तो अस्थिर हो ठहरा, स्थिर तो स्थिर ही ठहरा। भरतेशका ज्ञान अन्यथा क्योंकर हो सकता है ? भरतेश गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी मातृप्रेम, पुत्रमाह व स्त्रियोंकि मोहको मायाही समझते थे। एवं हमेशा अपने आत्मामें रत रहते थे। यह विचार सत्य सिद्ध हुआ। बाह्यमें लोकप्रसन्न हो इस प्रकारका व्यवहार और अन्तरंगमें आत्मसुखके अनुभवको स्वीकार करते हुए उन्होंने विवेकसे काम लिया । यह विवेक आज काममें आया। अब तो भरतेशके शरीरमें अणुमात्र भो परसंग अर्थात् परिग्रह नहीं है । अब शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है, कर्मवर्गणा भी आत्मासे भिन्न हैं। इस प्रकारके अनुभवसे स्वयं अपनो आत्मामें स्थिर हो गये हैं, कर्मवर्गणायें इश्वर-उधर निकल भाग रही हैं। इन्द्रिय, शरीर, मन, वचन और कर्मसमूह आदि आत्मासे भिन्न हैं, आत्मा उनसे भिन्न है, मैं तो द्रव्यमावोंसे परिशुद्ध हूं। इस प्रकारके विचारसे वह योगोन्द्र स्वयंको ही देख रहा है। आत्माको शुविकल्पसे देखा जाय तो वह शुद्ध है। बद विकल्पसे देखा जाय तो वह बर है। सिद्धान्त के द्वारा वह देखने में नहीं आ सकता है । आत्माके द्वारा आत्माको निषद्ध करनेपर आत्मदर्शन होता है। शास्त्रोंमें आत्मगुणोंका वर्णन है, एवं आत्मामें आत्माको स्थिर करनेके उपाय भी बताये गये हैं। परन्तु वह आत्मा बचन गोधरातीत है। अत:. वचनसे उसका साक्षात्कार कैसे हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता है.. अनुभवसे ही उसका दर्शन होना चाहिये । ध्यानके प्रारम्भमें उन्होंने विचार किया कि कर्म भिन्न है, और आत्मा भिन्न है । आत्मध्यानमें मग्न होनेके बाद यह विकल्प भी दूर हुआ। केवल खात्मामें तल्लीन हुभा। उसके बाद गुरु हंसनाए ही मैं हूँ इस
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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