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________________ २३४ भरतेश वैभव अक्षरोंका विकल्प नहीं है। केवल आत्मकलाका ही दर्शन हो रहा है। सूर्यके समान शुक्लध्यान है, चन्द्रमाके समान धम्बध्यान है । चन्द्रमाके सामने नक्षत्र दिखते हैं, परन्तु सूर्य के सामने नक्षत्रों का दर्शन नहीं हो सकते है । उसी प्रकार शुक्लघ्यानके सामने अक्षारात्मक विचार नहीं रह सकते हैं, केवल आत्मप्रकाशको वृद्धि होकर सुज्ञानका अनुभव हो रहा है । विविध शब्दब्रह्म उस ब्रह्मामें अन्तर्लीन हो गया हो इस प्रकार सूचित करते हुए वह परमात्मयोगी इस समय व्यवहारको छोड़कर निश्चयपर आरूढ़ हुआ है एवं आत्मानुभव में मग्न है। ध्यानके समय ध्यान, ध्येय, ध्याता व ध्यानका फल इस प्रकार धार विकल्प होते हैं। परन्तु वहाँपर वह दिव्ययोगी अकेला स्वयं स्वयंमें मग्न होते हुए परमात्मयोगका अनुभव कर रहा है। भेददृष्टिका विचार बंधका कारण है। अभेदात्मक अध्यवसाय ही मोक्ष है। यह मोक्ष सम्यग्ज्ञान सिद्धांतके द्वारा ही साध्य है, अतः वह योगी उस समय स्वसंवेदनमें मग्न था! उस आत्मयोगको वचनके द्वारा कैसे वर्णन कर सकते हैं ? क्योंकि वचन तो जड़ है, और वह आत्मा नामीतिर सामाोही आत्माको जानता है, अनुभव करता है उस आत्माको आत्मसिद्धि होती है। एवं उज्ज्वल कान्तिको बढ़ा रहा है, उस ध्यानकी महत्ताको भरतयोगीन्द्र ही जान सकता है। मुखकी छाया प्रसन्नतासे युक्त है, शरीर अत्यन्त स्थिर है। उन्नत योगीके शरीरमें नवीन कान्ति बढ़ रही है। कमरेणु तो झरते जा रहे हैं, आत्मकान्ति तो बढ़ती जा रही है । बालसूर्यके प्रकाशमें ऐक्य होनेवालेके समान यह योगिरल परमात्मकलामें मग्न है। ___ बाह्म सर्व झंझटोंको छोड़कर अपने घरमें जाकर विश्वान्ति लेनेवाले व्यक्ति के समान वह राजा उस समय दुनियाको चिन्ताको छोड़कर अपनी बात्मामें विश्रांति ले रहा है। संसारके अस्थिर भवोंमें भ्रमण करते हुए अनेक परस्थानोंको प्राप्त किया एवं उनको दुस्थानके रूपमें अनुभव किया । अतएव उनको छोड़कर अब स्वस्थानमें निवास किया है। तोन लोकमें स्थानलाभ तो अनेक समय तक अनेक बार हुआ। परन्तु आल्मस्थानलाभ तो बार-बार नहीं हुआ करता है, यह तो कचित् ही होता है, अब उसको प्राप्ति हुई है इससे बढ़कर और क्या भाग्य होगा? अनेक राज्योंपर शासन किया, परन्तु वे सब राज्यवैभव नश्वर ही प्रतीत
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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