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________________ २१६ भरतेश वैभव हे सिद्धारमन् ! अष्टकमरूपी अरण्यके लिए आप अग्निके समान हो, निर्मल अष्टगुणोंको धारण करनेवाले हो, शिष्टाराध्य हो नित्यसंतुष्ट हो, इसलिए हे निरंजनसिद्ध मुझे सन्मति प्रदान कीजिए। इति जिनमुक्तिगमनसंधिः -०९ राज्यपालन संधिः भगवान आदिप्रभके मुक्ति पधारनेके बाद सम्राट भरतेश्वरने महल में पहुँचकर अपनी पुत्रियोंको सरकारके साथ विदा किया । और रत्नाभरणादि प्रदान कर संतुष्ट किया। कुछ दिन आनन्दसे व्यतीत हुए एक दिन सुखासीन होकर भरतेश्वर अपने महलमें थे, इतने में समाचार मिला कि नमिराज व बिनमिराज दोक्षा लेकर चले गये। उसी समय मुखमें स्थित ताम्बूलको थूक दिया। गला भर आया। दुःखके आवेगसे आँसू भी उमड़ आये । क्योंकि नाम-विनमिका वियोग उनके लिए असह्य था, वे प्रोतिपात्र साले थे । तथापि विवेकके उपयोगसे सहन कर लिया। तदनंतर अवधिका प्रयोग किया तो मालूम हुआ कि अपनो मामियोंने भी भरतको बहिनोंके साथ दीक्षा ली है। ममि विनमिसे कनकराज और शांतराजको राज्य देकर दीक्षा ली, यह जानकर भरतेशको दुःख भी हुआ और साथमें उनके घेर्थको देखकर प्रसन्नता भी हुई। उसके मामाके पुत्र हो तो हैं । विचार करने लगे कि वे मुझसे आगे बढ़ गये। मुझसे पहिले जो वन्दनीय बन गये उनको नमोस्तु, इस प्रकार कहते हुए नमस्कार किया । नमि विनमिने कच्छ केवलोसे दीक्षा ली और माताओं एवं स्त्रियों को दीक्षा भगवान् बाहुबली के पास हुई, धन्य है, इत्यादि विचार करते हुए अन्दर गये तो महलमें पट्टरानो सुभद्रादेवी अत्यधिक दुःखमें पड़ी हुई हैं। उत्तम व संतोषदायक वचनोंसे भरतेश्वरने उसे सांत्वना दी । भरतशके लिए यह कोई नई बात नहीं है । नमि विनमिके बच्चोंके संरक्षणके लिए मैं हूँ, कोई घबरानेको जरूरत नहीं है, इत्यादि प्रकारसे पट्ट रानीको सांत्वना देकर १. नमि विनमिकी मातायें व महाकच्छकी स्त्रियाँ ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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