________________
भरतश वभक सम्राट्ने कहा--तुम लोगोंने बहुत अच्छा गान किया । इस वचन को सुनकर वे स्त्रियाँ और भी अधिक प्रसन्न हुई। फिर सम्राट्क्के चरणकमलोंको बहुत भक्तिके माथ नमस्कार कर वे अपने-अपने स्थान में जाकर बैठ गईं।
त्रारों ओरसे कमलोंके द्वारा घिरा हुआ तथा कमलों के बीच में बैठा हुआ ब्रह्म जिस प्रकार शोभित होता है उसी प्रकार भरतेश उस समय उन स्त्रियोंकी सभामें बैठे-बैठे शोभाको प्राप्त हो रहे थे ।
सम्राट् भरतको इस प्रकारका वैभव क्यों प्राप्त हुआ है ? वह इस प्रकारकी भावनामें निरत रहते हैं कि आत्मन् ! संसारके भयसे दःखी जो कोई भी प्राणी तुम्हारे पास शरणागत होकर आवे उनकी रक्षा करने के लिये तुम वञपिंजरके समान हो, जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता है। तुम स्वाभाविक आभूषणोंसे युक्त हो, अतएव सहजसुन्दर हो । अनन्त सुख तुममें है । तुम उज्ज्वल ज्ञानज्योतिको धारण कर रहे हो, इसलिए मेरी रक्षा करने में सर्वथा समर्थ हो, मेरी रक्षा करो। मेरे हृदयमें रहो । आत्मन् ! सचसुचमें तुम संसारका नाश करनेवाले हो, मुझे भी सिद्धिकी ओर ले जावो।।
इस प्रकार सतत भावनाके कारण सम्राट् भरतेशने असाधारण वैभवको प्राप्त किया।
इति राणसौध संषि
अथ राजलावण्य संधि
जब भरतेश दरबारमें बहुत वैभवके साथ विराजमान थे, तब तक एक गायकीने पण्डिताके कानमें कुछ कहा ।
वह पण्डिता एकदम उठी और सम्राट्को हाथ जोड़कर कहने लगी कि स्वामिन् ! मुझे आपसे एक प्रार्थना करनी है, आशा है आप आशा देंगे।
"अच्छा ! कहो !" भरतेशने कहा ।।
आपकी सेवामें मैं एक नवीन काव्यको उपस्थित करना चाहती हूँ। कृपया आप उसे सुननेका कष्ट करें। पंडिताने कहा।