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भरतेश वैभव
होती है । इस प्रकार आत्मसम्पत्ति में वह भरतयोगी मग्न हुए। अब अव्ययसिद्धिका मागं उनको सरल बन गया । इस प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिदर्शन अवधिज्ञान व क्षायिकसम्यक्त्व के रूपमें भरतेश्वरको पंचैश्वयं की प्राप्ति हुई। क्या जगत्पति भगवान् का कथन अन्यथा हो सकता है ? ग्यारह कर्मोंको जलाकर पंचैश्वर्य प्राप्त किया। अब शेष कर्मोंको इतने ही समय में मैं दूर करूंगा, यह भी सम्राट्ने उसी समय जान लिया। आजके लिए इतना ही लाभ है, आगे फिर कभी देखेंगे, इस विचारले हृदमंदिर के अमल सच्चिदानन्दको वन्दना कर मरतेश्वरने आनन्दसे अखि खोल दीं व उठकर खड़े होगये । जय ! जय ! त्रिभुवननाथ ! मेरे स्वामी! भाप जयवंत रहें। आपकी कृपासे कमको जीतकर पंचेश्वर्यको प्राप्त किया ! इस प्रकार कहते हुए भरतेश्वरने भगवन्तके चरणोंमें मस्तक रक्खा । उसी समय करोड़ों देववाद्य बजने लगे। देवगण पुष्पवृष्टि करने लगे एवं समवशरण में सर्वत्र जयजयकार होने लगा । अतरंग आत्मकलाके बढ़मेपर, शरीरमें भी नवीन कांति बढ़ गई । उसे देखकर कुलपुत्र आनन्दसे नृत्य करने लगे एवं आदिप्रभुके चरणों में नमस्कार किया । हे भरतराजेंद्र ! भव्यांबुजभास्कर ! परमेशाग्र कुमार ! परमात्म रसिक कर्मारि! तुम जयवंत रहो। इस प्रकार वेत्रवर देव भरतेश्वरकी प्रशंसा करने लगे ।
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भगवान् अरहंतको पुनः साष्टांग नमस्कार कर मुनियोंकी वन्दना कर एवं शेष सबको यथायोग्य बोलते हुए भरतेश्वर अपने पुत्रों के साथ मगरकी ओर रवाना हुए। तब सब लोग कह रहे थे कि शाबास, राजन् ! जीत लिया । तनको दंडित न कर मनको दंडित करनेवाले एवं अपने आत्मामें मग्न होकर कर्मोंको जोतनेवाले भरतेश्वर अब अपने नगरकी ओर जा रहे हैं। वर्षो रटकर ग्रन्थोंके पाठ करते हुए मुंह सुखानेबाले शास्त्रियोंकी वृत्तिपर हँसते हुए व क्षणभरमें आगमसमुद्रके पार पहुँचनेवाले सम्राट् जा रहे हैं। बहुत दिनतक घोर तपश्चर्या न कर एवं दीर्घकाल तक चितरोध न करते हुए ही अवविज्ञानको प्राप्त करने वाले भरतेश्वर जा रहे हैं । मायाको दूरकर, शरीरमें स्थित आत्मामें श्रद्धा करते हुए क्षायिक सम्यक्त्वको पालनेवाले भरतेश्वर अपने नगरको ओर था रहे हैं। शरीर व मस्तक में वस्त्र व आभूषणके होनेपर भी आत्माको मन कर पक्वयंको प्राप्त करनेवाले एवं कांलकर्मके विजयी राजा जा रहे हैं। भूम दीक्षित अपने पुत्रोंको देखनेके लिए मये हुए अपितु साक्षात् की शकर आये, ऐसे अतिदक्ष सम्राट्
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