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________________ १९४ भरतेश वैभव भगवंतसे भरतेश्वरने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि स्वामिन् ! मोक्ष किसे कहते हैं व उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। कृपया निरूपण कीजिये। तब भगवंतने अपने दिव्यनिनादसे निम्न प्रकार निरूपण किया। मोक्षका अर्थ छुटकारा है। कमसे छुटकारा होकर जब यह केवल आत्मा ही रह जाता है उसे मोक्ष कहते हैं, कर्म कैसे अलग हो सकता है? उसे भी जरा सुनो। तीन शरीरोके अन्दर स्थित आत्मा संसारो है। जब तीन देहोंका अन्त हो जाता है तब यह आत्मा मुक्त हो जाता है। इसलिए शरीर भिन्न है, मैं भिन्न हूँ। इस प्रकारके ध्यानका अभ्यास करनेपर शरीर नाश होकर मुक्तिको प्राप्ति होती है। लकड़ों में आग है, उसे घर्षण करनेपर उसो लकड़ीको जला देती है इसी प्रकार आत्मा ध्यानाग्निके द्वारा आत्माका निरीक्षण करे तो तीन शरीर जल जाते हैं। कर्म और तीन देह इन दोनोंका एक अर्थ है, धर्मका अर्थ निर्मल आत्मा है । धर्मको ग्रहण करो, कर्मका परित्याग करो। धर्मके ग्रहण करनेपर कर्म अपने आप दूर हो जाता है एवं मोक्षपदकी प्राप्ति होती है । बाह्मवर्म सभी व्यवहार या उपचार धर्म है। परन्तु आत्मा हो उत्कृष्ट धर्म है । बायधर्मोंसे देहभोगादिक्रकी प्राप्ति होती है। अंतरंगधर्मसे देह बर होकर मुक्तिको प्रालि होती है। तीः रा अर्थात् रत्नत्रयोंके ध्यान करना ही मेरी अभिन्न भक्ति है। तब हे भव्य ! मेरा वैभव तुम्हें भी प्राप्त होता है, देखो ! तुम अपनेसे ही अपनेको देखो। आकाशके समान आत्मा है । भूमिके समान यह शरीर है । आकाश भूमिके अन्दर छिप गया है। क्या ही आश्चर्य है। इस प्रकार विचार करनेपर आत्मदर्शन होता है। चंचल चित्तको रोककर, दोनों आँखोंको मौंचकर, निर्मल भाव दृष्टिके द्वारा बार-बार देखनेपर देहके अन्दर वह परमात्मा स्वच्छ प्रकाशके समान दीखता है । बैठे हुए ध्यान करनेपर शरीरमें बैठे हुए स्वच्छ प्रतिमाके समान आल्मा दीखता है । सोकर ध्यान करनेपर सोई हुई प्रतिमाके समान एवं खड़े होकर ध्यान करनेपर खड़ी हुई प्रसिमाके समान दीखता है पहिले पहिले बेठकर या खड़े होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । अभ्यास होने के बाद बैठो, खड़े हो जाओ, चाहे सोओ वह आत्मदर्शन हो जायेगा | शरीर कैसा भी क्यों न रहे परन्तु आत्मामें लोन होना चाहिये तब वह दैदीप्यमान आत्मा निकट भव्योंको देखने को मिलता है। हे मव्य ! यही ज्ञानसार है । यही चारित्रसार है । यहो सम्यक्त्वसार है। यही उत्तम तपसार है, ध्यानसे बढ़कर कोई चीज नहीं । इसे विश्वास
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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