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________________ १८८ भरतेश वैभव बचपनमें हो आप लोग क्यों दीक्षा लेते हैं ? कुछ दिन ठहर भाइये ! इस प्रकार प्रार्थना करनेपर उस बातको भुलाकर दूसरे ही प्रसंगको छेड़ देते हैं व हमें धीरे-धीरे आगे ले जाते हैं। हे सुरसेन ! वरसेन ! पुष्पक, करविद ! आओ इत्यादि प्रकारसे हमें बुलाकर, एक कहानी कहेंगे, उसे सुनो इत्यादि रूपसे बोलते हुए जाते हैं । राजन् ! उनके तंत्रको तो देखो ! हे राम ! रंजक ! रन ! सोम ! होशल ! होन! भीम ! भीमांक! इत्यादि नाम लेकर हमें बुलाते थे एवं कोई प्रसंग बोलते हुए हमें आगे ले जा रहे थे । और एक दूसरेको कहते थे कि भाई ! तुम्हारा सेवक सुमुख बहुत अच्छा है। उसे सुनकर दूसरा भाई कहता था कि सभी सेवक अच्छे हैं इस प्रकार हमारी प्रशंसा करने लगे थे। स्वामिम् ! आपके सूकुमार हमसे कभी एक दो बातोसे अधिक बोलते ही नहीं थे। परन्तु आज न मालूम क्यों अगणित वाक्य बोल रहे थे। हम लोग उनके तंत्रको नहीं समझते थे, यह बात नहीं ! जानकर भी हम क्या कर सकते थे? मालिकोंके कार्यमें हम लोग कैसे विघ्न कर सकते थे? सामने जो प्रजायें मिल रही थीं उनसे कहीं हम इनके मनकी बात कहेंगे इस विचारसे उन्होंने हमको कल्ला कि तुम लोगों को पिताजीकी शपथ है, किसीसे नहीं कहना । सो हम लोग मुंह बन्दकर कैदियोंके समान जा रहे थे स्वामिन् । सचमुचमें हम लोग यह सोच रहे थे कि चलो हमें क्या ? भगवान् ! आदिप्रभु इन बच्चोंको दोक्षा क्यों देंगे । समझा बुझाकर इनको वापिस भेज देंगे। इसी भायनासे हम लोग गये । राजन् ! आश्चर्य है कि भगवान्ने उन कुमारोंके इष्टकी ही पूर्ति कर दी। हम लोग परमपापी हैं । स्वामिन् ! हम परमपापी हैं। इस प्रकार कहते हुए रविकोतिसे वियुक्त अरविद रविसे वियुक्त मरविंदके समान रोने लगा। रोते-रोते अपने साथियोंको ओर देखता है, वे सब ही रो रहे थे। सम्राट्ने कहा कि आप लोग इतना दुःख क्यों करते हैं ? शांत हो जाओ। उत्तरमें उन्होंने कहा कि स्वामिन् ! जन्मदातागोको भुलाते हुए हमारा उन्होंने पालन किया । हमारे मनको इच्छाको पूर्ति करते हुए सदा पोषण किया। लोकमें सर्वश्रेष्ठ हमारे स्वामी अब इस प्रकार हमें छोड़कर चले गये तो दुःख कैसे एक सकता है। भरतेश्वरने पुन: प्रश्न किया कि अरविंद ! कहो तो सही उनको वैराग्य क्यों उत्पन्न हुआ? तब अरविंदने कहा कि स्वामिन् । हस्तिनापुरके राजा दीक्षित हुए समाचारसे ये सन्यस्त हुए अर्थाह दीक्षा केनेके लिए वापस हुए । 'तब क्या रविकोतिकुमारने भी यह नहीं कहा कि कुछ दिन के बाद
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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