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________________ ४९ भरतेश वैभव कर लेता है। इतना सब होते हुए भी अपनी आत्मपरिणतिमें वह प्रमाद नहीं करता है। उसमें बहुत सावधान रहता है। यह उसकी विशेषता है। वह किसीके प्रति क्रोधित होता नहीं, और न क्रोधित होना ही बह जानता है। उसे वैसी इच्छा कभी नहीं होती है। यदि बह कुछ क्रोधित हो भी गया तो उसी समय उस क्रोधको भूल जाता है, और ज्ञानप्राप्ति कर लेता है। जिस प्रकार तपाया हुआ पानी जल्दी ठण्डा हो जाता है उसी प्रकार से भी थोड़ी कषाय आ जाय तो वह जल्दी शांत हो जाता है। ___वह स्त्रियोंके साथ प्रेमव्यवहार करे, तो नखहति, दन्तहति आदि कर वह विशेष आसक्त नहीं होता। कदाचित् करें तो दूसरोंको बह उसको कृति है या नहीं यह भी मालूम नहीं हो पाता है । स्त्रियोंके साथ वह प्रणयकलह कभी नहीं करता है । यदि कदाचित् करे तो भी क्षणभरमें उससे पलटकर गंभीरतामें निमग्न रहता है यह निष्पाप भोगियोंका लक्षण है। स्वयं अपने गौरव गंभीरता आदि गुणोंका पूर्ण ध्यान रखकर वह आत्मविवेकी व्यवहार करता है। उसकी स्त्रियाँ भी उसके समान आचरण करती हैं। उसकी लीला ठीक वैसी ही है जैसे कोई हाथी जंगलमें हथिनियोंके बीचमें रहकर क्रीडा कर रहा हो। यदि किसी एक स्त्रीके प्रति उसका विशेष प्रेम भी हो, तो वह उसे किसीको नहीं प्रगट करता है। एक पुरुष एक पत्नीके साथ जिस प्रकार रहता हो वह उसी प्रकार अनेक नारियकेि साथ समदष्टिसे रहता है। स्त्रियोंको आकर्षण भी करता है। उनके प्रति प्रीति भी करता है। उनकी इच्छाकी नित्यपूर्ति भी करता है। उन्हें आनन्द उत्पन्न करता है । उन्हें हर प्रकारकी नीति, रीतिको सिखाता है एवं बीच-बीचमें अपना अनुभव भी करता रहता है। ___ वह आत्मज्ञानी बहुतसे जालोंमें फंसा हुआ है ऐसा बाह्यमें देखनेवालोंको मालूम होता है, परन्तु यथार्थमें वह किसी भी फंसा हुआ नहीं है । वह कामसेवनमें मदोन्मत्त हो गया हो ऐसा मालूम तो होता है परन्तु वह कभी भी वैसा होता नहीं । ठगोंके समान उसका आचरण दिखता है परन्तु सचमुचमें उसमें छल नहीं है। जिसने अपनी आत्माका
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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