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ਕਥਾ ਕੇਂਦਰ
दयानिधिके पास आये हैं । स्वामिन्! आपके दर्शन के पहिले हम बहुत दुःखी थे | परन्तु आपके दर्शन होने के बाद हमें कोई दुःख नहीं रहा इस बात को हम अच्छी तरह जानते हैं । इसलिए हमारी प्रार्थनाको अवश्य सुनने की कृपा करें।
'भगवन् ! को भगाकर, कामको लात मारकर, दुष्कमं जालको नष्ट कर हम मुक्तिराज्य की ओर जाना चाहते हैं । इसलिए हमें जिनदीक्षाको प्रदान करें । दीक्षा देनेपर मनको दंडित कर आत्मामें रक्खेंगे एवं ध्यान दण्डसे कर्मों को खंड-खंडकर दिखायेंगे आप देखिये तो सही अहंतु ! हम गरीब व छोटे जरूर हैं, परन्तु आपकी दोक्षाको हस्तगत करनेके बाद हमारे बराबरी करनेवाले लोकमें कौन हैं ? उसे बातोंसे क्यों बताना चाहिए। आप दीक्षा दीजिये, तदनन्तर देखिये हम क्या करते हैं ?
प्रभो ! इस आत्मप्रदेश में व्याप्त कर्मोंको जलाकर कोटिसूर्य चन्द्रों के प्रकाशको पाकर यदि आपके समान लोकमें हम लोकपूजित न बने तो आपके पुत्र पुत्र हम कैसे कहला सकते है ? जरा देखिये तो सही 1
हमारे पिता छह खंडके विजयी हुए। हमारे दादा (आदिप्रभु ) प्रेमठ कमौके विजयी हुए। फिर हमें तीन लोकके कर्मको क्या परवाह है | आप दीक्षा दीजिये, फिर देखिये । भगवन् मोक्ष के लिए ध्यानकी परम आकय कता है | ध्यानके लिए जिनदीक्षा हो बाह्यसाधन है। इसलिए "स्वामिन् ! दीक्षां देहि ! दीक्षां देहि !" इस प्रकार कहते हुए सबने साष्टांग नमस्कार किया ।
भक्ति से बद्ध दीर्घबाहु, विस्तारित पाद, भूमिको स्पर्श करते हुए कलाट प्रदेश, एकाग्रता से जगदोश के सामने पड़े हुए वे कुमार उस समय सोनेकी पुतली के समान मालूम होते थे।
"अस्तु भव्याः समुतिष्ठत" आदिप्रभुने निरूपण किया। तब वे कुमार उठकर खड़े हुए। वहाँ उपस्थित असंख्य देवगण जयजयकार करने लगे। देवदुदुभि बजने लगी । देवांगनायें मंगलगान करने लगीं । समयको जानकर वृषभसेनयोगी व देवेन्द्र वहाँ पर उपस्थित हुए नीलरत्नको फरसो के ऊपर मोतीकी अक्षताओंसे निर्मित स्वस्तिक के कार उनी कुमारोंको पूर्व व उत्तरमुखसे बैठाल दिया, वे बहुत आतुरताके साथ वहाँ बंट गये । उनके हाथ में रत्नत्रययंत्रको स्वस्तिक के ऊपर रखकर उसके कार पुण्यफळाशतादि मंगलद्रव्योंको विन्यस्त किया, इतने में हल्ला-गुरुला बन्द हो गया, अब दीक्षाविधि होनेवाली है। वे सुकुमार भगवान्के प्रति हो बहुत