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भरतेश वैभव
१६५ आत्माका दर्शन नहीं होता है। तथापि वे सारभव्योंकी वृत्तिके प्रति अनुरागको व्यक्त करते हैं। इसलिए वे कल आत्मसिद्धिको प्राप्त करते हैं।
सारभव्य आत्माका दर्शन करते हैं, तब दूरभव्य प्रसन्न होते हैं। उस समय अभव्य उनकी निन्दा करते हैं, उनसे द्वेष करते हैं। फलतः वे नरकगतिमें पहुँच जाते हैं । कमी व्यवहारका विषय उनके सामने आये तो बड़ा उत्साह दिखाते हैं । परन्तु सुविशुद्ध निश्चयनयका विषय उनके सामने आवे तो चुपचापके निकल जाते हैं, उसका तिरस्कार करते हैं।
स्वतः उन अभन्योंको आत्मयोग प्राप्त नहीं हो सकता है। जो स्यास्मानुभव करते हैं उनको देखनेपर उनके हृदयमें क्रोधोद्रेक होता है। उन भव्योंकी निंदा करते हैं, यदि उनकी निंदा न करे तो उनको ध्रुव व अविनाशी संसार कैसे प्राप्त हो सकता है। वे अभव्य द्वादशांग शास्त्रों में एकादशांगतक पठन करते हैं। परिग्रहको छोड़कर निग्रंथ तपस्वी भी होते हैं । परन्तु बाह्याचरणमें ही रहते हैं।
शरीरको नग्न करता यह देहनिर्वाण है। शरीरके अन्दर स्थित आत्माको शरीररूपी थैलेसे अलग कर देखना आत्मनिर्वाण है। केवल बाह्य नग्नतासे क्या प्रयोजन ? देहनग्नताके साथ माश्मनग्नताकी परम आवश्यकता है।
मूर्तिनिर्वाण अर्थात् देहनिर्वाणके साथ हंसनिर्वाण अर्थात् आत्मनिर्वाण को ग्रहण करें तो मुक्तिकी प्राप्ति होती है । वे धूर्त अभव्य मूर्ति-निर्वाण को स्वीकार करते हैं, हंसनिर्वाणको मानते नहीं हैं।
अन्दरके कषायोंका त्याग न कर बाहर सब कुछ छोड़े तो क्या प्रयोजन है ? सर्प अपनी काचलोका परित्याग करें तो क्या वह विषरिहत हो जाता है ? आत्मसिद्धि के लिए अन्दर तिलमात्र भी रागद्वेष मोहका अंश नहीं होना चाहिये एवं स्वयं आत्मा आत्मामें लीन हो जावे ।
इस प्रकारके उपदेशको अभव्य नहीं मानते हैं । वे ध्यानकी अनेक प्रकारसे निंदा करते हैं । उसको खिल्ली उड़ाते हैं जो ध्यान करते हैं, उनकी हँसो करते हैं, "ये ध्यान क्या करते हैं, कैसे करते हैं, आत्मा आत्मा कहाँ है ?' इत्यादि प्रकारसे विवाद करते हैं।
वे अभव्य 'ध्यानसिद्धि स्वतःको नहीं है' इसे मात्सर्यसे "इसे आत्मध्यान नहीं हो सकता है, उसे आत्मध्यान नहीं होता है यह काल उचित नहीं है, वह काल चाहिए, उसके लिए अमुक सामन्त्री चाहिये, तमुक