________________
भरतेश वैभव
व्यंजनार्थको लेकर जब उस ध्यानका चार भेदसे विभंजन होता है वह व्यवहार है । उन विकल्पोंको हटाकर आत्मामें ही मग्न हो जाना निरंजन, निश्चय शुक्लध्यान है। धर्मध्यान बहुशास्त्रो (विशेष विद्वान्) अल्पशास्त्री मुनि, श्रावक सत्रको होता है परन्तु शक्लध्यान तो विशिष्ट ज्ञानी या अल्पज्ञानी योगीको ही हो सकता है गृहस्थोंको नहीं हो सकता है ।
आजसे लेकर कलिकालके अन्सतक भी धर्मयोग तो रहता ही है । परन्तु शुक्लध्यान आजसे कई फालतक रहेगा । परन्तु कलिकालमें इस (भरत भूमिमें) शुक्लध्यानको प्राप्ति नहीं हो सकती है।
धर्मध्यानसे विकलनिर्जरा होती है और शुक्लध्यानसे सकल निर्जरा होती है। विकलनिर्जरासे देवलोकको संपत्ति मिलती है और सकलनिर्जरासे मोक्षसाम्राज्यका वैभव मिलता है। ____ एक ही जन्ममें धमंयोगको पावर पुनश्च शुक्लयोगमें पहुंचकर कोई भव्य मुक्त होते हैं। और कोई धर्मयोगसे आगे न बढ़कर स्वर्गमें पहुंचते हैं व सु उसे जीवन व्यतीत करते हैं।
धर्मयोगके लिए वह काल यह काल वगैरहको आवश्यकता नहीं है। वह कभी भी अनुभव किया जा सकता है, जो निर्मल चित्तसे उस धर्मयोगका अनुभव करते हैं वे लोकांतिक, सौधर्मेन्द्र आदि पदवीको पाकर दूसरे भवसे निश्चयसे मुक्तिको प्राप्त करते हैं ।
व्यवहारधर्मका जो अनुभव करते हैं उनको स्वर्गसंपत्ति तो नियमसे मिलेगी। इसमें कोई शक नहीं है। भवनाश अर्थात् मोक्षप्राप्ति कोई नियम नहीं है। आत्मानुभव ही उसके लिए नियम है। आत्मानुभव होनेके बाद नियमसे मोक्षकी प्राप्ति होगी।
आज निश्चयधर्मयोगको प्राप्ति नहीं हुई तो क्या हुआ। अपने चित्त में उसकी श्रद्धाके साथ दुश्चरितका त्याग करते हुए शुभाचरण करे तो कल निश्चयधर्मयोगको अवश्य प्राप्त करेगा।
संसारमें अविवेकी मूढ़ात्माको वह निश्चयवर्मयोग प्राप्त नहीं हो सकता है, जोकि स्वतः उस निश्चयधर्मयोगसे शून्य रहता है । एवं निश्चय धर्मको धारण करनेवाले सज्जनोंको वह वृश्चिकके समान रहता है एवं उनको निन्दा करता है। ऐसे दुश्चित्त को वह धर्मयोग क्योंकर प्राप्त हो सकता है ?
भव्योंमें दो भेद हैं। एक सारभव्य दूसरा दूरभव्य । सारभव्य ( आसन्मभव्य ) उस आत्माको ध्यानमें देखते हैं । परन्तु दूरमध्योंको उस