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भरतेश वैभव तीन शरीर जब अलग हो जाते हैं तब यह आत्मा लोकानभागको 'निरायास पहुंच जाता है जिस प्रकार कि एरंड फलके सूखनेपर उसका बोज ऊपर उड़ जाता है। ऊपरके बातवलयमें क्यों ठहर जाते हैं ? उससे ऊपर क्यों नहीं जाते हैं। इसका उत्तर इतना ही है कि उस वातबलयसे ऊपर धर्मास्तिकाय नहीं हैं जो कि उन जीवोंको गमन करने में सहकारी हैं । इसलिए वहीं पर सिद्धात्मा विराजमान होते हैं ।
वह सम्पत्ति अविनश्वर है, बाधारहित आनन्द है । अनन्त वैभवका वह साम्राज्य है, विशेष क्या? बचनसे उसका वर्णन नहीं हो सकता है । यह लोकातिशायी सम्पत्ति है, निश्रेयस है । यह सप्त तत्वों में अन्तिम तस्व है।
इस प्रकार हे भव्य ! सप्त तत्वोंके स्वरूपको जानकर उनमें पुण्य पाशेंको मिलाने पर नय पदार्थ होते हैं । उनका भी विभाग सुनो।
मानव व बंषतत्व में तो वे पुण्यपाप अन्तर्भूत हैं। क्योंकि आस्रव में पण्यास्त्रव, पापासट हा प्रकार को भेद हैं । और धमें भी पुण्यबंध और पापबन्ध इस तरह दो भेद हैं।
गुरु, देव, शास्त्रचिता, पूजा आदिके लिए जो मन वचन कायका उपयोग लगाया जाता है वह सब पुण्ययोग है। मद्यपान, जुआ, शिकार आदिके लिए उपयुक्त योग पापयोग है।
तीवंदन, व्रताराधना, जप, देवतायंदन आदिके लिए उपयुक्त योग पुण्य है। अनर्थक कार्यमें एवं जार चोदिक कथामें उपयुक्त योग पाप • योग है । पुण्याचरणके लिए उपयुक्त योग पुण्यावरूप है, पाप मार्गमें प्रवृत्त योग पापासव कहलाता है। ___ रागद्वेष और मोहके संयोगसे बंध होता है। राग और मोहका पुष्य
और पापके प्रति उपयोग होता है, परंतु क्रोध अथवा देष तो पापबंधके लिए ही कारण हैं । देवभक्ति, गुरुभक्ति, शास्त्रभक्ति, सद्गुण, विनय. सम्पन्नता आदि पुण्यबंधके लिए कारण हैं । स्त्री, पुत्र, धन, कमक आदि के प्रति जो ममता है वह पाप बंधके लिए कारण है। व्रत, दान, जप, तप, संघ आदिके प्रति जो ममत्व परिणति है वह पुण्य बंधके लिए कारण है, और हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार व परिग्रह आदिके प्रति जो स्नेह है यह पापबंधके लिए कारण है।
आत्मा स्वयं ही आत्माका है। इसे छोड़कर अन्य पदार्थोके प्रति आत्मबुद्धि करना वही मोह है। देव शास्त्र गुरुओंके प्रति ममत्वबुद्धि करना पुण्य है | शरीरके प्रति ममत्वबुद्धि करना पाप है।