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________________ १३६ भरतेश वैभव की दिव्यध्वनिके लिए इतर पदार्थोकी अपेक्षा हो क्या है ? दूरसे सुनने वालोंको समुद्घोषके समान सुनने में आता है। पाससे सुननेवालोंको स्पष्ट सुनाई देता है । कोई भी भव्य कुछ भी प्रश्न करें सबका उत्तर उस दिव्यध्वनिसे मिलता है। विवाह समारम्भके घरके बाहरसे एकदम घोर शब्द सुनने में आता है । परन्तु अन्दर जाकर सुनने पर स्त्रियोंका गीत, वाद्य व इतर शब्द सुननेमें आते हैं। एक ही ध्वनिको सामने अनेक व्यक्ति सुन रहे हैं । तथापि उस ध्वनिको एक ही रूप नहीं कह सकते हैं। सुननेवाले विभिन्न परिणामके भव्योंके चित्तमें विभिन्न रूपसे परिणित होता है। इसलिए अनेक रूपसे परिणित होता है। जिस प्रकार नदीका पानी एक होनेपर भी उसे बगीचे में लेकर आम, इमली, कटहर, नारियल आदि अनेक वृक्षोंकी ओर छोड़नेपर वह पानी एक ही रूपका होने पर भी पात्रों की अपेक्षासे विभिन्न परिणतिको प्राप्त करता है, उसी प्रकार दिव्यध्वनि भो अनेक रूपमें परिणत हो जाती है। ___ नर सुर नागेन्द्र आदि भाषाओंसे युक्त होकर वह दिव्यभाषा एक ही है, जिस प्रकार कि रसायनमें सुगंध, माधुर्य आदि अनेकके सम्मिश्रण होनेपर भी वह एक ही है। सर्व प्राणियों के लिए वह हितकारक हैं । सर्व सत्वोंका मूल है । उसको प्रकट करनेवाले जिनेन्द्र अकेले हैं, सब सुननेवाले हैं। लाखों भव्योंके होनेपर भी वहाँ अलौकिक निस्तब्धता है। एक आश्चर्य और है । आदि देवोत्तमका निरूपण कोई पासमें रहे था दूर रहे कोसों दूर तक एक समान सुननेमें आता है। भव्योंको देखकर वह निकलती हैं। अभव्योंको देखकर वह निकल नहीं सकती है । यह स्वाभाविक है | आदिचक्रवर्ती भरतेशके पुत्र भव्य हैं। इसलिए वह दिव्यध्वनि प्रसृत हुई। यह दिव्यध्वनि नित्य प्रातःकाल, मध्याह्न, सायंकाल और मध्यरात्रि इस प्रकार चार संधिकालमें छह घटिका निकलती है । बाको समयमें मौनसे रहता है। वाको समयमें कोई आसन्नभव्य आकर प्रश्न करें तो निकलती है। इन कुमारोंके पुण्यातिशयका क्या वर्णन करना । उनके पुण्यातिशयसे ही दिव्यध्वनिका उदय हुआ। दिव्यध्वनिमें भगवंतने फर्माया कि हे रविकीर्तिराजा आत्मसिसिको
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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