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भरतेश वैभव
१३५ भगवान् ! बच्चोंकी भूलको न देखकर हमारी रक्षा कीजिये । इस प्रकार प्रार्थना की।
हाथ भरकर सुवर्णरत्लके पुष्पोंसे पुष्पांजलि अर्पण करके, देह भरकर साष्टांग नमस्कार कर, मुंह भरकर भक्तिसे उन्होंने भगवंतकी स्तुति की। नित्य निराश निरंजन निरुपम सत्य सदानंद सिंघो। अत्यंतशांत सुकांत विमुक्ति साहित्याय ते नमः स्वाहा ॥ कायाकार कायातीत सुजानकाय शुद्धात्मसुदृष्टि । श्रेयोनाथाय लोकनाथाय निर्मायाय ते नमः स्वाहा ॥ वीतरागाय विधासंपुर्जे परंज्योतिषे श्रीमते महते । भूतहिताय निष्पीताय भवकुलोद्भूताय ते नमः स्वाहा ।।
इत्यादि प्रकाशसे भक्तिसे स्तुतिकर भगवंतको तीन प्रदक्षिणा दी व वहाँपर विराजमान अन्य केवलियोंको भी वंदना की। गणधरोंको भी नमन कर, सभामें स्थित सर्व समुदायके प्रति एक साथ शिष्टाचारको प्रदर्शन कर ग्यारहवें निर्मल कोष्टमें वे बैठ गये । सभाकी अतुल सम्पत्ति व भगवंतके देहकी दिव्यकान्तिको देखते हुए, जिनेन्द्र के सामने ही बैठकर वे कुमार भानन्दसे पुलकित हो रहे हैं। शायद तीन लोकके अग्रभागको ही वे चढ़ गये हों, इतना आनन्द उनको हो रहा है ।
रविकीतिराजने हाथ जोड़कर प्रभसे प्रार्थना की स्वामिन् ! हमें आत्मासिद्धिके उपायका निरूपण कीजिये। तब मुदु मधुर गम्भीर निनादसे युक्त सात सौ अठारह भाषाओसे संयुक्त दिव्यध्वनि भगवंतके मुख कमलसे निकली। उस राजरूपी राजबिम्ब (चन्द्रबिम्ब) को देखकर कैलाशनाथ आदि प्रभुरूपी समुद्र एकदम उमड़ पड़ा और दिव्यध्यनिरूपो समुद्रघोष प्रारम्भ हुआ।
गर्मीके संतापसे सूखे हुए वृक्षोंको यदि बरसातका पानी पड़े तो जिस प्रकार अंकुरित होते हैं उसी प्रकार संसारतापसे संतप्त भव्योंकी उस दिव्यध्वनिने शांति प्रदान किया ।
वह दिव्यध्वनि एक बोली ही है । परन्तु सबकी बोलीके समान वह सामान्य बोली नहीं है अहतको बोलीके बारेमें मैं क्या बोलू ? गला, जीभ ओंठ आदिको न हिलाते हुए बोलनेकी वह अपूर्व बोली है । मेषके शब्दको, समुद्र के घोषको ओठ जीभ मादिकी आवश्यकता ही क्या है ? त्रिजगत्पति