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भरतेश वैभव पर गड़े होकर एक ही क्षणमें समस्त विश्वको प्रकाशित करता है।
भाई ! लोकमें आँखोंसे देखते हैं व मनसे जानते हैं परन्तु भगवंतके ज्ञानदर्शन आँख व मनपर अवलंबित नहीं है । वे आंख व मनको सहायता के बिना आत्मज्ञान व दर्शनसे ही समस्त लोकका ज्ञान करते हैं व देखते है । क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानदर्शनसे संयुक्त है।
कर्मागियोंको ही पराधीन होकर रहना पड़ता है । इसलिए ये जानने व देखने के लिए आंखें व मनकी आधीनतामें पहुंचते हैं । परन्तु समस्त कर्मको जिन्होंने नाश किया है ऐसे भगवतके ज्ञान व दर्शनके लिए पराधीनता कहाँ ?
रात्रिमें इधर उधर जानेके लिए सर्वजन दीपकको अपेक्षा रखते हैं। क्या सूर्यको दीपकको आवश्यकता है ? नहीं ! इसी प्रकार कर्मबद्ध व शुद्धोंके व्यवहार में अन्तर है।
सूर्यका प्रकाश लोकमें सब जगह पहुँचता है । तथापि गुफाके अन्दर नहीं पहुंचता है । परन्तु उस जिनसूर्यका प्रकाश तो लोकके अन्दर व बाहर समस्त प्रदेशमें पहुंचता है।
आदि भगवंत लोक और अलोकको जरा भी न छोड़कर जानते हैं व देखते हैं। इसलिए यह सुज्ञानसूर्य जगभरमें व्याप्त है, ऐसा कहते हैं, यह उपचार है।
गुरु व शिष्यके तत्त्वपरिज्ञानके व्यवहारमें उपचार दृष्टांत देना पड़ता है । जबतक तत्त्वका ज्ञान नहीं होता है तबतक दृष्टांतकी जरूरत है मूलतत्त्वका शान होनेके बाद दृष्टांतको आवश्यकता नहीं है जिस प्रकार बछड़ेको दिखाकर, बछड़ेका शोधन कर आत्मज्ञान कराया गया, अथवा लोहरससे अर्हत्प्रतिमा बनाकर अहतको बतलाया जाता है, यह सब दृष्टांत है उपचार दृष्टांत तो कुछ समयतक रहता है । उपमित निश्चय दृष्टांत ही यथार्थमें ग्राह्य हैं ! उपदेशका अंग होनेसे उस निश्चय दृष्टांतका कथन करता हूँ, सुनो!
दर्पणमें सामनेके पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं, परन्तु क्या वे पदार्थ दर्पणके अन्दर हैं या वे पदार्थसे वह स्पृष्ट हैं ? नहीं । इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ केवलोके शानमें झलकते हैं । परन्तु भगवंत उन पदार्थाको स्पर्श न कर विराजते हैं । परमौदारिक दिव्यशरीरमें भगवान् रहते हैं परन्तु उसका भी उन्हें कोई सम्बन्ध नहीं है। उनका शरीर सो अनन्तशान हो है.