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________________ ११० भरतेश वैभव वे बच्चे भोजनके समय ही पाखाना करते हैं। इतनेमें इसका प्रेममें भंग आता है। यह एक विचित्रता है। स्त्रियोंको कोई रोग आवे तो उनका शरीर दुर्गन्धसे भरा रहता है। तब पति अपने मुखको दुर्गन्धके मारे इधर-उधर फिरा लेता है। परन्तु यह विचार नहीं करता है कि यह मोह ही मायाजाल स्वरूप है। व्यर्थ ही वह ऐसे दुर्गन्धमय शरीरपर मुग्ध होता है। स्त्रियों जब गाभणी हो जाती हैं, प्रसूत होती है एवं मासिक धर्मसे बाहर बैठती है, तब उनके शरीरसे शुक्ल, शोणित व दुर्मलका निर्गमन होता है । वह अत्यन्त घृणास्पद है। परन्तु ऐसे शरीरमें भी भैसे जैसे कीचड़में पड़ते हैं, उसी प्रकार अविवेकी जन सुख मानते हैं, खेद है ! मत्रोत्पति के लिए स्थानभत जघनस्थानके प्रति मोहित होकर मुक्तिको भूलकर यह अविवेकी जननिंद्य जीवनको धारण करते हैं परन्तु हम सच्चरित्र होकर इसमें फंसे तो कितनी लज्जास्पद बात होगी । इस प्रकार उन कुमारोंने विचार किया। __ सुखके लिए स्त्री और पुरुष दोनों एकान्तमें कोड़ा करते हैं। परन्तु गर्भ रहनेके बाद वह बात छिपी नहीं रह सकती है। लोकमें वह प्रफट हो जाती है । भिणो का मुख म्लान हो जाता है, रोती है, क शी है, वह प्रसववेदनासे बढ़कर लोकमें कोई दुःख नहीं है । सुखका फल जब दुःख है तो उस सुखके लिए धिक्कार हो । एक बूंदके समान सुखके लिए पर्वत के समान दुःखको भोगनेके लिए यह मनुष्य तैयार होता है, आश्चर्य है । यदि दुःखके कारणभूत इन पंचेन्द्रिय विषयोंका परित्याग करें तो सुख पर्वतप्राय हो जाता है, और संसार सागर बूंदके समान हो जाता है । परन्तु अविवेको जन इस बात को विचार नहीं करते हैं। ___ स्वर्ग को देवांगनाओके सुन्दर शरीरके संसर्गसे भी इस यात्माको तृप्ति नहीं हुई। फिर इस दुर्गन्धमय शरीरको धारण करनेवाली मानवी स्त्रियोंके भोगसे क्या यह तृप्त हो सकता है ? असम्भव है। सुरलोक, नरलोक, नागलोक एवं तियच लोककी स्त्रियोंको अनेक बार भोगते हुए यह आत्मा भवमें परिभ्रमण कर रहा है। फिर क्या उसकी तृप्ति हुई ? नहीं ! और न हो सकती है। जिनको प्यास लगी है वे यदि नमकीन पानीको पीवें तो जिस प्रकार उनकी प्यास बढ़ती ही माती
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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