________________
७८
भरतेश वैभव व्रतको मनमें ले रक्खा है । जब कभी भी हो अरहतके दर्शन होनेके बाद हम अमुक रसका ग्रहण करेंगी | तब तक नहीं लेंगो, यदि दर्शन नहीं हआ तो आजन्म इन रसोंका त्याग रहेगा। इस प्रकार जन रानियोंने एकएक रसका त्याग कर रक्खा है । भरत ! यह तुमको भी मालम नहीं, दूसरोंको भी मालूम नहीं है, केवल वे स्वानुवेधले गूड प्रतको धारण कर रही हैं। आजतक उन व्रतोका पालन करती हुई आई हैं। अब उन व्रतोंकी मिद्धि होनी चाहिये । सुनो! इन मन्दिरोंको प्रतिष्ठा तुम करवाओगे ! निर्वाण कल्याणके रोज समवसरणमें स्थित सर्व सज्जन अन्य भूमिपर जायेंगे केवल कुछ वृद्ध संयमो भगवतके पास रहेंगे । उस समय लाकर तुम्हारी रानियोंको भगवतका दर्शन कराओ | यह अच्छा मौका है। समझे? इतना कहकर वे योगिराज आगे चले गये।
भरतेश्वरको अपनी रानियोंकी मनकी बातको समझकर एवं उनके उच्च विचारको समझकर मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और निश्चय किया कि इस प्रतिष्ठाके समय मेरी बहिनों के साथ सभी रानियोंको भगवंसका दर्शन करवाऊँगा । उसी समय भरतेश्वरने अपनी पुत्रियोंको तथा बहिनों को पत्र लिखकर सब समाचार दिया । और बहुत आनन्दके साथ ब्राह्मणों के हाथ भेज दिया। ___भरतेश्वरको वृत्तिको देखकर ये विप्रजन भी बहुत प्रसन्न हुए । और उसी आनन्दके भरमें प्रशंसा करने लगे कि स्वामिन् ! आप बाप ही बहिनों, आपकी पुनियों, पुत्रों व रानियोंके जीवनको पवित्र करनेके लिए ही उत्पन्न हुए हैं। इतना ही क्यों, लोकमें समस्त जीवोंके उद्धारके लिए ही आपका जन्म हुआ है । आपको भोगोंमें आसक्ति नहीं है । षर्मयोगमें आसक्ति है । इसलिए आपको संसारी कैसे कह सकते हैं ? आपकी गहतपो भोगी कहना उचित होगा ! अर्थात् आप घरपर रहनेपर भी तपस्वो हैं। परमात्मन् ! हे जिन सिद्ध ! भरतराजेन्द्र लोकमें क्या गृहस्थ है ? नहीं नहीं ! वह मोलमार्गस्य हैं । इस प्रकार सुन्दर दाढ़ी कुंडल व मस्तकको हिलाते हुए उन विनोंने भरतेश्वरको प्रशंसा की।
बहत आनन्द के साथ बातचीत करते हुए वे सब मिलकर अयोध्या नगरमें आये । नगर प्रवेश करनेके बाद उन विप्रोंने अपने-अपने स्थानमें भेजकर भरतेश्वर महलकी ओर गये व वहाँ सुखसे रहने लगे। इतनेमें चक्रवर्तीने जो दुःस्वप्नोंको देखा वह समाचार सर्वत्र व्याप्त हो गया। समस्त देशके राधा सम्राटसे मिलने के लिए आने लगे।