SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव ____मंत्री ! वे अभव्य ध्यानको स्वीकार नहीं करते हैं। ध्यान करना ही नहीं चाहते हैं । यदि कदाचित् स्वीकार किया तो उसमें अनेक प्रकारको पराधीनता बताकर उसे छोड़ देते हैं। श्री निरंजनसिद्धमें स्थिर होनेके लिए कहें तो कुछ न कुछ बहानाबाजी करके टाल देते हैं । _____ ध्यान करनेके लिए घोर तपश्चर्याकी जरूरत है । अनेक शास्त्रोंके जानकी जरूरत है। इत्यादि कह कर ध्यानका अपलाप करते हैं। स्वयं तप भी करें, अनेक शास्त्रोंका पठन भी करें तो भी ध्यानसे वे विरहित रहते हैं। स्वयं तो वे आत्माको देखना नहीं जानते हैं, और दुसरे जो आस्मानुभवी हैं उनको देखकर संतुष्ट भी नहीं होते हैं। केवल दूसरोंको कष्ट देना वे जानते हैं । उनके साथ ध्यानी जन कभी न करें। ___ मंत्री ! विशेष क्या कहें ? यह आत्मध्यान गृहस्थको हो सकता है। मुनिको हो सकता है । बड़े शास्त्रोको हो सकता है | छोटे शास्त्रीको भो हो सकता है। गृहिणांका भी हो सकता है। बावल आसन्न भव्य होनेकी जरूरत है, इसे विश्वास करो। परम शुक्लध्यान योगोंके सिवाय गृहस्थोंको नहीं हो सकता है। हाँ ! उत्कृष्ट धर्म्यध्यान तो सबको हो सकता है। इसमें कोई संदेह ही नहीं है । घHध्यान भी दो प्रकारका है । एक व्यवहार धर्म्यध्यान, दूसरा निश्चय धर्य ध्यान | आज्ञाविच्य, विपाकविचय, अपायविचय और संस्थानधिचय इस प्रकार चार भेदोंसे विभक्त धम्यध्यानके स्वरूपको समानकर चितवन करना यह व्यवहार धबध्यान है। स्वतः आत्माको सुज्ञानी समझकर चितवन करना यह निश्चय धर्म्यध्यान है। ___ संसारमें जो बुद्धिमान हैं उनको उचित है कि वे आत्माको आत्मासे देखकर अपने अंतरंगको जानें और कर्मसंघका नाश करें। वे परध्यानी भवभ्रमणसे मुक्त होकर मुक्ति स्थानमें स्वयं सिद्ध परमात्मा होकर विराजते हैं। भोगमें रहकर धर्मयोगका अबलम्बन करना चाहिए । बाद भोगांतमें योगी होकर शुक्लध्यानसे अष्टकर्मोको नाशकर मुक्ति प्राप्त करना चाहिए । ज्ञानियों को कर्मनाश करने में विलम्ब नहीं लगता है । श्रेण्यारोहण करनेके लिए अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब भी वे दीक्षा लेते हैं। समुद्र में स्नान करनेके लिए जानकी इच्छा रखनेवाले दो मनुष्योंमें, एक सो अपने घरपर ही कपड़े वगैरह उतारकर स्नानके लिए घरसे पूरी तैयारी कर जाता है । दूसरा समुद्रके तटपर जाकर वहीं कपड़ा खोलकर
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy