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भरतेश वैभव पुण्यमाताने ही अनन्तवीर्य स्वामीको जन्म दिया है। वहाँ उपस्थित सर्व तपस्वियोंने उस पावनांगी यशस्वती माताको आदरसे देखा।
भगवान् अनन्तवीर्य स्वामीका अब तीन लोकसे या लोकके किसो भो प्राणीसे सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ये लोग बहुत भक्तिसे व संबंधका विचार करते हुए उनकी सेवामें जाते हैं। बाकी लोग यह माता है, भाई है, बेटा है, इत्यादि रूपसे संबंध लगाकर विचार करते हैं। परन्तु अनन्तवीर्य स्वामी का अब कोई संबंध नहीं है। कमंकी गति विचित्र है उसे कौन उल्लंघन कर सकता है ? __ माताको आगे पुत्रोंको साथ लेकर चक्रवर्तीने वीतरागके चरणों में भेंट रखकर 'धाति कर्मोद्धत जय जय' यह कहते हुए साष्टांग नमस्कार किया। कमलके ऊपर सिद्धासनपर विराजमान सूर्य को भी तिरस्कृत करने वाले स्वामीको वंदना करते हुए माताका आनन्दसे रोमांच हुआ। क्यों नहीं ?
महलसे निकलते हुए हो यह विचार था कि जिनपूजा करें। इसलिए स्नान वगैरहसे शुचिर्भत होकर सामग्री सहित आये हए थे, करोड़ों बाजोंके शब्द दशों दिशाओं में गंज रहे थे। पूजा समारम्भ बहुत ही सवरे चल रहा था। सम्राट् स्वयं व उनके पुत्र सामग्रियोंको भर-भर कर दे रहे थे। माता पूजा कर रही है । उनके विशाल गुणों का वर्णन क्या करें । सम्राट को जननी पूजा कर रही थी, और सम्राट् स्वयं परिचारकके कार्य कर रहे हैं। उस पूजाके वैभवका वर्णन क्या हो सकता है। बष्टविध द्रव्योंस जब उन्होंने पूजा की तो वहां पर मेरके समान सामग्री एकत्रित हुई। बल, गंध, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धुप फल इन अष्टद्रव्योंसे राजमाताने जिस समय पूजन किया। देवगण जयजयकार कर रहे थे। तदनन्तर अध्यं शांतिधारा देकर रत्नपुष्पोंको वृष्टि कर पुष्पांजलि को गई। देवोंने पुष्पवृष्टि की, जय-जयघोष हुआ ।
पूजाकी समाप्ति होनेपर गाजेबाजेके शब्द बंद हुये । भरतजीने माताको बागे रखकर अपने पुत्रोंके साथ भगवंतकी तीन प्रदक्षिणा दी । तदनंतर मुनियोंको नमोस्तु कर सम्राट् योग्य स्थानमें ठहरे ! माता यशस्वती देव गुरुपोंकी वंदना कर अजिकाओंके समूहके पास चली गई । वहाँपर अजिकाओंके चरणों में उन्होंने जब नमोस्तु किया तो उन पूज्य संयमिनियोंने कहा कि देवो, माओ, तुम भी तो अर्जिका ही हो न ? तुममें किस बातको कमी है ? इस प्रकार कहकर यशस्वतीके कोमल अंगोंपर गणिनीनायकाने