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________________ मरतेला धमव आप लोगोंके समाचारको बहुत उत्कठाके साथ सुनते हैं । आप लोग कहाँ हैं, कोनसे नगरमें हैं इत्यादि समाचार हम लोगोंसे पूछते रहते हैं । सम्राट के पासमें बहुतसे पुत्र हैं, उनसे प्रेमालाप करते हैं तथापि आप लोगोंका स्मरण हदसे ज्यादा करते हैं उस पुत्रानरागको मैं वर्णन नहीं कर सकता । दुनियामे देखा जाता है कि किसीको ७-८ पुत्र हो तो भी उनके ऊपर प्रेम नहीं रहता है, परंतु चक्रवर्तीको पंक्तिबद्ध हजारों पुत्रों के होनेपर भी उनके प्रति समान प्रेम है, उसका मैं कहाँतक वर्णन करें। आप दोनोंका बारबार स्मरण किया करते हैं। हम लोग बार-बार उनको समझाते हैं कि क्या अर्ककीति और आदिराज बच्चे हैं । वे दोनों विवेको व बुद्धिमान् हैं, इतनी चिंता आप क्यों करते हैं । उत्तरमें वे कहते हैं कि में भूलने के लिए बहुत प्रयत्न करता है परन्तु मेरा मन नहीं भूलता है कोई भूलका औषध हो तो दे दो। हम लोग फिर कहते हैं कि राजन् ! आपके पुत्र स्वदेशमें ही हैं, आर्य खंडमें हैं, म्लेच्छखंडमें नहीं गये हैं। बहुत दूर नहीं गये हैं, फिर इतनो चिता क्यों करते हैं। तब उत्तरमें भरतजी कहते हैं कि मेरे पुत्र अयोध्यानगरके बाहर गये तो भी मेरा हृदय नहीं मानता है तो मैं उन्हें अन्यत्र जाने पर उनको छोड़कर कैसे रह सकता हूँ ? पुनश्च कहते हैं कि पुत्रोंसे रहित सम्पत्ति नहीं है, वह आपत्ति है। सत्कविता रहित पठन राखके समान है, उनको छोड़कर मेरा जीवन अलंकारहीन कानके समान है । मुझे बहुतसे पुत्र हैं जो हार व पदकके समान हैं । परन्तु हार व पदकके रहनेपर भी कानमें कोई अलंकार न हो तो उन हार पदकोंसे शोमा कसे हो सकती? आदिराज और अकीसि दोनों मेरे कर्णभूषणस्वरूप हैं। तब हम लोगोंने कहा कि मापने उनको परदेशमें क्यों भेजा ? यहीं रख लेना था । बापने निषेध किया होता तो वे आपके पास ही रहते । उत्तरमें सम्राट् कहते हैं कि तब उनको भेजते समय दुःख नहीं हुआ बादमें दुःख हुआ, इसे क्या करूं? आप लोगोंके समाचारको रोज सुनते हैं, आप लोगोंका स्थान-स्थान पर हाथी, घोड़ा, कन्या आदि प्रदान कर जो सत्कार होता है उससे तो वे परम संतुष्ट होते हैं । रात्रिदिन सम्राट्के पास एक एक संतोषके समाचार आते हैं, उन्हें सुनकर वे अत्यधिक प्रसन्न होते रहते हैं। परन्तु फूलको मालाके बीच में एक कांटेके आनेके समान युद्धका समाचार सुनने में आया । वह समाचार इस प्रकार आया कि काशीम को २-३
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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